Saathi
सोंच रहा था...!!!
जब कभी सपनों में कल्पनाएँ...
चित्त को उद्वग्न कर जाएँगी, आयेगी
फिर 'वही' निशा पहर में......
सपनो की मनोरम बारात सजाएगी,
पंकज किशोर की वह अभिलाषा
साथी मेरा संगती भरी वह जिज्ञासा...!!
क्षण-क्षण नये तेवरों से और, कितना रुलाओगी,
दौड़ जाती हो इन हथेलियों को छोड़
कोसों दूर अम्बर में...और बर्षों तक नहीं आती
मेरे खिले प्रसून की गोद में...
दूर बहुत तो मैं देख नही सकता
अपनी चंचल-उत्सुक निगाहों से,
दूरस्थ मंजिल तक पहुँच नहीं सकता
इन लड़खड़ाते पैरों से......
नूपुरों की नटखट धुनों में बांध
हमेशा कितना...सताती हो...
वहाँ हरीतिमा की सुंदर सेज़ में..,
वहाँ गुलशन के आयतों में...
कहीं कोई और श्रृंगार पाती हो...!!!
जो क्षण भर में मेरे अद्योपांत पगडंडियों से
बाहर दौड़े...चली जाती हो...।
बीत चुके कई हजार लम्हें
कई रातें भी पुन: जाग गईं...,
खिलते -मुरझाते पंखुड़ियों का रोज
सवेरा और मातम आता-जाता है,
अक्लांत हृदय में दारुणता तन्हइयों की
सुध दे जाता है......
नीहारता हूँ अपने रुंधे आच्छादित मन में
कहीं...तेरी वहाँ कुछ लय हो,
ढूंढता हूँ...!! सर्वोविस्तारित वन तक
कहीं वहाँ तेरी भींनी खुशबु का कोई आश्रय हो,
पर नहीं मिली तू मुझे इन यौवनॉ में
अकेला ही खड़ा था...सफर की राह पर
अपनी मौजो में तेरा रुप तेरे अहसास का पल लिये
मगर नसीम की रुसवाईयों में वह भी बह गया
तकता-तकता राह मैं तेरी निराशा से भींग गया,
कड़वटें बदल-बदल कर बीतें हैं कई फसानें
समझता रहता तू...है मेरे इसी सिरहाने,
चूमा भी कई बार हथेलियों को तुझे पाकर
लेकिन...मेरा यह आदर्श...!!!
चेहरा वहाँ उभरता ही नहीं था कोई प्रस्ताव लेकर
यह थी इनायत मुझपर मेरे बेबाक अनुराग पर
चाहा...कई बार उकेर दूँ तुझे चेतना पट पर
मगर इंतजार का यह मदहोश आलम छोड़ता कब था
अचेतन पड़ा था वह जो व्यंग-हाले में...
सरकता सा मैं जाम हर हाथों में टूट रहा था...
लेकिन तुझे पाने की चाहत में मैखाने का
इतिहास नहीं बना था......
मेरी समझ की भी क्या गाथा-सार है
उच्चतम नियमों का उदगार है...
संस्कारों में लिपटी मेरी हृदयतार है...
सिद्धातों में उलझी मानसिकता,यही मेरा अंधकार है ।
जब कभी सपनों में कल्पनाएँ...
चित्त को उद्वग्न कर जाएँगी, आयेगी
फिर 'वही' निशा पहर में......
सपनो की मनोरम बारात सजाएगी,
पंकज किशोर की वह अभिलाषा
साथी मेरा संगती भरी वह जिज्ञासा...!!
क्षण-क्षण नये तेवरों से और, कितना रुलाओगी,
दौड़ जाती हो इन हथेलियों को छोड़
कोसों दूर अम्बर में...और बर्षों तक नहीं आती
मेरे खिले प्रसून की गोद में...
दूर बहुत तो मैं देख नही सकता
अपनी चंचल-उत्सुक निगाहों से,
दूरस्थ मंजिल तक पहुँच नहीं सकता
इन लड़खड़ाते पैरों से......
नूपुरों की नटखट धुनों में बांध
हमेशा कितना...सताती हो...
वहाँ हरीतिमा की सुंदर सेज़ में..,
वहाँ गुलशन के आयतों में...
कहीं कोई और श्रृंगार पाती हो...!!!
जो क्षण भर में मेरे अद्योपांत पगडंडियों से
बाहर दौड़े...चली जाती हो...।
बीत चुके कई हजार लम्हें
कई रातें भी पुन: जाग गईं...,
खिलते -मुरझाते पंखुड़ियों का रोज
सवेरा और मातम आता-जाता है,
अक्लांत हृदय में दारुणता तन्हइयों की
सुध दे जाता है......
नीहारता हूँ अपने रुंधे आच्छादित मन में
कहीं...तेरी वहाँ कुछ लय हो,
ढूंढता हूँ...!! सर्वोविस्तारित वन तक
कहीं वहाँ तेरी भींनी खुशबु का कोई आश्रय हो,
पर नहीं मिली तू मुझे इन यौवनॉ में
अकेला ही खड़ा था...सफर की राह पर
अपनी मौजो में तेरा रुप तेरे अहसास का पल लिये
मगर नसीम की रुसवाईयों में वह भी बह गया
तकता-तकता राह मैं तेरी निराशा से भींग गया,
कड़वटें बदल-बदल कर बीतें हैं कई फसानें
समझता रहता तू...है मेरे इसी सिरहाने,
चूमा भी कई बार हथेलियों को तुझे पाकर
लेकिन...मेरा यह आदर्श...!!!
चेहरा वहाँ उभरता ही नहीं था कोई प्रस्ताव लेकर
यह थी इनायत मुझपर मेरे बेबाक अनुराग पर
चाहा...कई बार उकेर दूँ तुझे चेतना पट पर
मगर इंतजार का यह मदहोश आलम छोड़ता कब था
अचेतन पड़ा था वह जो व्यंग-हाले में...
सरकता सा मैं जाम हर हाथों में टूट रहा था...
लेकिन तुझे पाने की चाहत में मैखाने का
इतिहास नहीं बना था......
मेरी समझ की भी क्या गाथा-सार है
उच्चतम नियमों का उदगार है...
संस्कारों में लिपटी मेरी हृदयतार है...
सिद्धातों में उलझी मानसिकता,यही मेरा अंधकार है ।
10 comments:
hi divya phir aaj tumne jo likha wo sachmuch mann ko bhigo gaya.. prem aur intezaar ke ye udgaar aur ye uttam bhaasha.. jaga gai fir koi abhilaasha.. ye tanhaai ye ruswaai.. sachuch baarish hui hai laga..
divyabh, bari shandar kavita likhi hai, सपनो की मनोरम बारात सजाएगी kya kehne.
aur photo to lajavab hai, bus direction ki kami hai. maslan. for swarg take right and for nark take left. Also, U-turn for earth not allowed.....
सुंदर अभिव्यक्ति के साथ मनमोहक चित्र!!!
अति सुंदर।
सच में तस्वीर को जागृत रुप में तुम देख
सकती हो...धन्यवाद.
तरुन भाई, शुक्रिया आपके निर्मल कथनों का !!!
बहुत- बहुत धन्यवाद प्रेमलताजी जो मेरे ब्लाग
पर पधारी .
Aapke BLOG per aate hee, sangeet sunayee deta hai jo sumadhur aur shanti denewala hai --
fir, aapki badhiya rachnayein, chitron ke sath padhker bahot prasannata hoti hai.
a truly grand Blog ! -
keep up with the good writing ..
regards,
Lavanya
दिव्याभ, आपकी कई कविता और लेख पढे.सभी पसन्द आये.कुछ देर से टिप्प्णी कर पाई.ये कविता खास पसंद आई!
पढ्कर सुकुन मिलता है..भैया.
बीत चुके कई हजार लम्हें
कई रातें भी पुन: जाग गईं...,
खिलते -मुरझाते पंखुड़ियों का रोज
सवेरा और मातम आता-जाता है,
अक्लांत हृदय में दारुणता तन्हइयों की
सुध दे जाता है......
नीहारता हूँ अपने रुंधे आच्छादित मन में
कहीं...तेरी वहाँ कुछ लय हो,
bahut hi sunder rachna hai yah lines dil ko chhoo gayi....
ranju
हैलो लावण्या मैडम,
आप जैसी हस्ती मेरे ब्लाग पर आईं और जो
इज्जत अफजाई दी उसके लिए मैं आपका
शुक्रगुजार हूँ।आपके शब्दों ने इसे और सार्थक
बना दिया है…धन्यवाद्।
रचना जी,
आपके शब्द मेरे मार्गदर्शक होंगे इस पृष्टिका पर
आने का धन्यबाद्।
गिरेन्द्र,
तुम पुन: आए और विचारों को समझा
बहुत-बहुत धन्यवाद्।
रंजू,
शुक्रिया जो मनोचेतना में उधृत अर्थ को बड़े ही
संगत रुप में देख़ा…कवि के लिए अपनी कविता
का अर्थ महत्वपूर्ण नहीं होता उसके पीछे का उदगार
क्या है यह …॥
aaj sahi taur pe saathi shabd ka matlab samjha aa gaya..sunder!
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