
हम भी भारत माता के वक्ष हैं
देखो न…कैसे गंगा बह रही है दूध की तरह…
'सफर' का कोई कारण तो होता नहीं…राह सामने हो तो कदम
कुछ पाने की लालसा में आगे बढ़ ही जाते हैं…इस सफर में
और लोग भी कदम साथ कर लें तो हैरानी का कोई कारण नहीं,
थोड़ी दूर तलक चलें साथ तो काफ़िला बन जाता है…रस-आनंद,
वाद-विवाद का शोर हो जाता है…यही इस माया नगरी (नगर तो
जान पड़ता है पर माया नहीं दिखी अबतक) मुंबई के गहरे काले
सागर की व्यथा है…महासागर में आधे तक समाये हुए भी पानी
की बोतलों से सागर को ही नहलाए हुए हैं…यहाँ हिंदी की सारी
कहावतें चरितार्थ होती दिखती हैं…किसी को माया मिलती है तो
राम नहीं…राम मिलें तो माया नहीं, अब परेशान दोनों हैं…।
हमें तो लग रहा है कि जो संदेश सुनाने यहाँ आये थे वह
बंबईया अंधी-दौड़ में ही कहीं न खो जाए सो सचेत होते हैं और काम
पर ध्यान ज्यादा…भटकाव पर कम देते हैं…अब क्या किया जाए
जब कदम ही भटने लगे तो कलम स्वयं ही भटक जाएगी तो
आश्चर्य न करना…।इस भीड़ में (नहीं समझे…मुंबई कीSSS) एक बिंदु
मैं भी हूँ (खुद की तारीफ क्या करना…इतनी तो हैसियत है ही) जो
सफर का राही है, वह भी "मुंबई लोकल"…यहाँ के लोगों को बड़ा फक्र
है इस पर कि आधी जिंदगी इसी 'लोकल' में आते-जाते कट जाती है,
बाकि करने को कुछ ज्यादा बचता नहीं, मगर मुझे अफसोस है कि
मेरे पास तो आधी जिंदगी ही पड़ी है उसका क्या होगा…।तो भाई
हम भी कई मुंड में से एक झुल रहे थे 'लोकल' की कमर की लचक पर
तभी एक 'शब्द' जो ऊर्जा का रुप होता है, बचपन में पढ़ा था कि अमर
होता है, कहीं से उड़ता हुआ मेरे कानों में पहुंचा किसी ने 2-4 मिनट पहले
कहा होगा " एक बिहारी सौ बीमारी"। अब तो बिहारी होने के झूठे दंभ
(जो खतरनाक ज्यादा होता है) ने मेरे कान के रिसिवर का एंटिना खड़ा
कर दिया…आँखें खोजी जासूस बन गईं…मन रुपी फोन का 'कालर आइडी'
चमकने लगा कि यह कौन साहब हैं…अब खड़े थे लोकल में तो गर्दन
के अलावा कुछ भी हिला नहीं सकते थे तो वही मेरा 'रडार-स्केल' का
काम भी कर रहा था…तभी पड़ी निगाह तोते की चोंच जैसे मुख वाले
बंधु पर जो अपने सामने वाले साथी प्रेमी को हुल दे रहे थे…होंगे कोई
50-55 साल के, माथे पर पसीना हाथ नहीं हिलने के कारण स्वरुप
फर्श रुपी चहरे पर बह रहा था…तो परेशानी शुरु और ऐसी स्थिति में
जो सबसे पहला शब्द याद आता है वह है "बिहारी"!!! क्यों भाइयों…
बिहारी…बिहारी लोग…बिहारी भाषा…सब-के-सब अनोखे हैं इस राष्ट्र के लिए
जैसे बाकियों को आजादी पहले मिली हो तो अनुसंधान बिहार पर ही…।
लगता नहीं कि हमारी मानसिकता कितनी पतित और ओछी है…
इस देश की सीमा को पार करते हीं…हमारा सारा गर्व पंजाबी-बंगाली-मराठी-
गुजराती-डेलाइट होने का पेट की पंखुड़ियों में ही कैद होकर रह जाता है; वहाँ
भारतीय होना ही काम को और ज्यादा कठिन बना देता है। इंग्लैंड
बहुत सभ्य है…ऐसा मैंने सुना और पढ़ा है, वहाँ पहुंच "शिल्पा" चिल्लाई
भेद हो रहा है, भेद हो रहा है…वह भी रंगभेद!!! मगर हमें तो अपने
देश के भीतर हो रहे इस भेद की छाया नहीं दिखती…कर तुम भी वही
रहे हो लेकिन तुम्हें सूझता नहीं…हमारे देश में यह भी एक तबका है
जो नस्ल भेद से परेशान है…अब तो यह कौम भी बन रहा है "बिहारी कौम"
आने वाले 50 सालों में यह हो जाए तो आश्चर्य नहीं। तो भारत में इस रुप
में दो कौम ही आतंकवादी हैं (ऐसा सामान्यत: माना जाता है) एक मुसलमान…
दूजा बिहारी…कई भाइयों को यह शब्द नागवार गुजरे पर "बिहारी धर्म" जो धर्म
होने के समस्त कारक को पूरा करता है…जिसे देखो चेहरा…भाषा…ढंग इत्यादि
से ही भांप जाता है…बिहारी!!! हमें तो नाज है अपनी भाषा पर जो भारत
की सबसे मधुरतम भाषा है( लयबद्ध संगीतमय हिंदी) हमारे पिछड़ेपन का
जिम्मेदार कौन??? पर जितना हम नहीं रोये अपनी इस स्थिति पर सारा
महान भारत हंस रहा है…कोई दंगा हो तो जिम्मेदार "मुसलमान"… कोई भी
घोटाला हो तो जिम्मेदार "बिहारी"…बड़ा उपकार किया है रे सांवा हमरा उपर
जरा बताई दो इनका भी कि ऐसे ही हम गब्बर ना बने हैं…हम तो औरों के
परिणामी कारण है रे…।
आज भी मैं यह सोचता हूँ कि अगर नौकरशाही तबकों में हमारा वर्चस्व
कायम नहीं होता तो बिहार की हालत अफ्रीकी काले लोगों से ज्यादा नहीं होती…
जबकि आने वाले वक्त में अगर भारत को रोटियाँ कोई खिलाएगा तो वह राज्य
"बिहार" ही है, यह मैं नहीं कह रहा वर्ल्ड बैंक चटका लगा रहा है…। एक लड़ाई
बिहारियों को और लड़नी है वह है अपने ही देश में ही अपनी आजादी की…
"Struggle For Self respect, FREEDOM"
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