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चार कौए उर्फ़ चार हौए


बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले


उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएँ और गाएँ
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएँ।


कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया-भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में


ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गए।


हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बाँधकर खड़े हो गए सब विनती में


हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएँ
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएँ।


बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को


कौओं की ऐसी बन आयी पाँचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में


उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले।


आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है


उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना!

-

भवानीप्रसाद मिश्र

9:28 PM
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9:28 PM

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Broken Eyes 1












गहरे आकाश पर चलकर फिसल गया हूँ कई बार,
उदास नम आँखों से टपक गया हूँ कई बार,
तन्हाइयाँ बेचैन कर जाती हैं या बेचैनी में तन्हा रह जाता हूँ कई बार…
बहुत सोंचा… बहुत चाहा…
कोई दर्पण उठाकर देखूं खुद को, थोड़ा अपने से समझूं खुद को…
मगर ज्योंही उठाया, दर्पण चनक गया…
अफसोस मेरा थोड़ा हिस्सा और भूला रह गया…
और भूला रह गया…।
11:40 AM
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11:40 AM

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आगाज़ सजग; वास्तविकता मौन…।



कतरा-कतरा जीवन की डोर सिमटती
जाती है संध्या के लाल गर्भ में…
बेख़ौफ नाचती आहिस्ते से
घटती जाती है सांसों में…
दौड़ अंधी, भाग दुनियाँ की
बैचैन चेहरों में उगती है
मायूस पल तृष्णा की कैद
आजाद मन पर चढ़ती जाती है…।

सभी भाग रहे बस औरों से आगे-आगे,
किस ओर कहाँ किसलिए?? है यह बस प्रारब्ध!!!
खुद से या वक्त को छोड़
बोझिल झुके कंधे अपने अस्त की
राह तकते हैं…
नहीं छूटती गति चक्र की खाली वृत
आगे वक्त से जाकर जीने में
वर्तमान रुद्ध हो जाते हैं…
तत्पर है जो, साथ वक्त के चलने को
पागल विक्षिप्त कहे जाते हैं…।

भाग ओ दुनियाँ!!! भाग किधर भी…
भागेगा कितना तू उसी चक्र में
घूमता-घूमता कई बार वहीं…फिर और वहीं
संताप, अविद्या में घुटता ही जाएगा…।

विमुख पतित आवरण, संस्कार घसीटता
सभ्यता की चौखट पर अपना त्राण मांग रहा…
दोष है किसका? नहीं जानते हम,
दोषों के पिछे भागते हम, मूल स्वरुप
स्वच्छंद वयस को रौंदते जाते हैं…
होती है अज्ञान की अज्ञानता से भिड़ंत
लहूलुहान निस्तेज होकर लथपथ
विशाल नीले चादर में रेंगना जानते हैं…।

भरता नहीं ये जख्म कभी…अपनी सलाख़ों
से ही गोद-गोद कर जो बनाएं हैं…
भाव-प्रेम-स्नेह-करुणा डूबती है इस लहू-आंगन में
शोर तड़पते रुह की…
तिमिर-गहराई में लुप्त हो जाती है,
बढ़ती तपीस… धधकती ज्वाला में
प्रतिबद्धता अकुलाई है… बढ़ते हुए इस
अनजाते दर्द से मानवता भरमाई है…

कोई जागे…जाग से आगे, लाकर दे
आनंद-पुष्प के पुलकित हार…
सशंकित हतप्रभ नयनों में भर दे
आशा-गंगा की धार…
रोपे वह ऐसा अंकुरण जो करे सार्थक
यह नव-निर्माण… ।
1:49 PM
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1:49 PM

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"दिनकर"… एक बलंद आवाज ।


"बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?"

राष्ट्रकवि 'दिनकर' विरचित ये पंक्तियाँ आम मानव में
भी विशिष्टता का बोध कराने सकने में सक्षम है… विगत
कुछ दिनों पहले ही राष्ट्रकवि 'दिनकर' जन्मशताब्दी

समारोह में विमोचित पुस्तक "समर शेष है" में मेरी जिस कविता को स्थान
मिला वही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ… मेरी इस कविता के संदर्भ में
"मुरली मनोहर जोशी" ने भी आयोजकों से पूछा कि यह कविता किसकी लिखी
हुई है… जिससे निश्चय ही, आत्म-गौरव सा प्रतीत हुआ…।


"कहीं दूर नक्षत्रों से वह चेहरा
संकेत अनेकों प्रेषित करता है
अपने देदीप्यमान संस्कारों के
करवटे बदला करता है…
समझें जो अभिव्यक्ति उसकी
आधार विनय का वह देता है…

व्यक्तित्व था वह क्षितिज सकल
अप्रतिम ज्ञान की दीर्घ लकीर
वैशिष्ट्य ओजमय काव्य दृष्टि से
भारत का जिसने सुप्रभात देखा
सिमरिया गाँव से टाँग वह झोला
पन्नों में कुछ सांसें छोड़ा…

बीज क्रांति का लिए हृदय में
दिनकर बन वीरों का आह्वान किया
हिंदी का गौरव मसाल जला
भावी जगत का उद्घोष किया
उत्साह विद्यार्थियों का कलमबद्ध कर
राष्ट्राभिमान भवितव्य की ओर मुखरीत किया…

उर्वशी की आत्म-सौंदर्य से संस्कृति
के कई गंभीर अध्याय लिखे…
कुरुक्षेत्र में बिखरे ज्ञान महिमा को
चुनकर बनाया आध्यात्म महल
चिंतन जो बन गये अक्षर…शोध
संस्कृति में व्याप्त होकर उद्देश्य
लिए राष्ट्र पीढ़ी का उत्थान…

गुंज रही आज-भी काव्य शैली उनकी
चंचल किशोरों के तन-मन में
हुंकार करता हुआ नवयुवक अग्रसर है
अपने दिव्य क्रांति के पथ पर
जीवन लक्ष्य साध्य हुआ था
शब्द खिला जब पंखुड़ियाँ बनकर
गहन आदर्श शांत ज्वाला का
संधान किया कर्ण बनकर...

रश्मिरथी है वह मनोविज्ञान
कविवर का अंतर्दृष्टिविस्तार
युवकों के भीतर नित्य होते महाभारत
कुंठीत उमंग अज्ञान भूमि में
चैतन्य का वह महा-अवसान
रुंधा हुआ कल आच्छादित भविष्य
रोज ही करते एक विषपान…
खोला द्वार कर्ण के द्वारा
विचलित मन को शांत किया
जख्मों से फूटते फव्वारे…लेप स्नेह का
लगाकर उपासना से मानवता में मुस्कान दिया…

पीढ़ी-दर-पीढ़ी जब कभी सुनेगी उनकी
रचनाओं के हर्ष गीत
प्रेरणा पंकिल शब्दों में ऊर्जा की
अभिव्यक्ति उधेल उदासी शिखर पर
कर्मठ स्वरुप निहित वीरता का सूत्रधार करेगी…

राष्ट्रकवि वह नूतन दीपक
भारत का सच्चा महानायक
सागर जैसी गर्जना थी उनमें
विद्यार्थियों के लिए नया जागरण
सत्य… कोलाहल बनकर उफनता था
साहस का समर बांधे हुए…
आवाज भविष्य की मौन प्रेम का
गौरव और प्रतीक शांति का
अवर्णनीय सक्षम उद्यमी कदम बढ़ाया
तीसरे विश्व… नई राह की ओर...

उद्घोषक थे क्रांति के वह शाश्वत ज्ञान की पराकाष्ठा भी
समग्रता के प्रतिबिंब थे वह आत्म-सिक्त आगाज भी
याद करें उनकी कार्यशैली और गहराई टटोलें आत्मन की
लेकर चले कलम उनकी ही जोड़े कड़ी अभिनव जीवन की।"
12:45 PM
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12:45 PM

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महात्मा…Gandhi...।



हमारे परम पिता, गुरु एवं कर्णधार

कई मायनों में हमसे बिल्कुल समान

और थोड़े जुदा-जुदा भी। आज विश्व

अहिंसा दिन भी घोषित किया गया जो

इस महान पुरुष के लिए विश्व श्रद्धांजलि

है। भारत ही ऐसा देश है जहाँ इस महा-

पुरुष की सबसे ज्यादा आलोचना की गई

मगर वह आज भी अपनी प्रज्ञा से शोभित

है… आज जो कविता मैं प्रस्तुत करने जा

रहा हूँ, वह मेरे पूर्व लेख "महात्मा और सत्याग्रह" का ही विस्तृत

रुप है…चूंकि यह कविता "महात्मा" पर लिखी मेरी प्रिय कविता है, जो उस लेख में

छिप-सी गई थी…।

“जन्मा था हमारा भविष्य आज ही साधारण शरीरी ले

विश्वास समेटे नेत्रों में देखा दासत्व, युग का रे…

दर्शन जिनका काल से आगे…सत्य था पीछे उनके

टेक चला था राम रे…

नि:संग अहिंसा की कर्मठता का पाठ पढ़ाते अपने

उषा काल में…

जिसके निर्भीक पांव से पड़ा मलीन था छत्र ब्रिटिश

का राज रे…

भारत के क्षितिज पर बनकर पिता चंदा के जैसे चमकते

हैं बापू बनकर राम रे…

अनुनय-पूर्वक लड़ा संग्राम, उतार फेंका अपने चीवर को

मानवता के आदर्श में…

कई चेहरों में अद्भुत वह चेहरा बनकर उतरे थे

प्राणों में स्वाभिमान रे…

तस्वीर बनाई नये भारत की जीवंत किया उसे

विश्व-इतिहास में…

दिया अनूठा ज्ञान सत्याग्रह का विश्व को, ऐसे थे वह महात्मा.…

जिनकी दुनियाँ करती गान रे…

सभी आधारों का समन्वय कर दे दिया वतन आजाद

हमारे हाथ रे…

वे महान नहीं आदर्श ,गर्व- स्वाभिमान यही थी उनकी

पहचान रे…

वह मानव थे या महा-मानव, पर थे

भारत के लाल रे

पारितोषिक है यह स्वतंत्रता… जीते जा रहे… उल्लास इसकी

सुगंध दिशाओं में फैला है, ऐसा आश रे…

आओ याद करें उस पुण्य आत्मन को

शत-शत नमन आदर-प्रणाम के साथ रे…

कि विश्वास हो पर्वत के जैसा

जो ढकेले चक्रवात रे…

पूरा हो लक्ष्य हमारा बढ़े देशाभिमान रे…"

हे राम, हे राम, हे राम

2:12 PM
Post Was Published On

2:12 PM

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वंदेमातरम्… Vande Maatram...।



शक्ति है… विश्वास है…
आजाद भारत का वरदान है
यह शब्द हमारी "आन" है
इसकी उन्माद हमारी "जान" है
उद्घोष हमारी "शान" है…
आत्मा के अंतरतम में गुंजता यह
पावन गीत मेरे हर्ष का आधार है…
वंदेssssss मातरम…………………
अखंड भारत का गौरव…एक पवित्र जाग है…।
********
आओ मिलकर जोड़ कर को गा लें हम भी गीत नया,
बुन लें मन के साजों से आज कोई संगीत नया…
बांध शमा इस पावन पर्व पर नतमस्तक हो
चरणों में माता के अर्पण अपना द्वेष करें…
********
अभी तक आसमां अधुरा है
तकता राह अपने कर्णधारों का…
सभी सितारे टिमटिमाते…इशारा
कुछ संदेश हमें हैं दे रहे…
********
बढ़ो… और बढ़े चलो…
भर दो सौमनस्य-सौहार्द अश्रुरुद्ध राह संकेतों पर
व्यथित दुखद इस जीवन की सिसकियों पर…
ध्यये निष्ठ होकर तन्मयता से खोदो एक
रास्ता आनंद विस्फारित उजले उपवन तक
फैलाकर अपने शांती का उज्जवल पंख
दु:स्वपन में डुबे भाग्य पर कुछ ललित पंक्तियाँ पढ़ दो…।
********
बढ़कर सीना तान सामने विपत्तियों के
बना लें रास्ता भाव रचना की अटल होकर
नियति की कस्ती को अयाचित करूणा, स्निग्ध प्रेम
से थामे… खुशहाली की अभिव्यक्ति देकर…
********
सौंदर्य प्रेम का अनुसरण ही
मानव में सत्य का अवतरण है
इस नश्वर जगत का यह प्रकाश
प्रेरणादायक मुस्कान का प्रज्वलन है
बेचैन मन के अनवरत संघर्ष में ही
उस नवयुग का उत्थान समर है…
********
संताप अग्नि में जलकर ही
पैदा होता है एक प्रेम मशाल
दुर्बलताओं पर विजय करने का
द्वार खोलता है यह अविष्कार…
********
अनुगमन करते अपने संस्कृति-संस्कार का
बढ़ चलें आशा का हर्ष दीप लिए
आनंद के सिंचन से धो दें कलुषित दामन को
अंधकाराच्छादित यौवन में प्रकाश स्थित करें…
********
संग्राम बड़ा यह विकट है पर
गहराई इसमें अनंत खुशियॉ पूरित है
फूलों की सेज सजा, दर्शन का ओढ़ उढ़ौना
भीतर के प्रभापूर्ण गरिमा से अंधे युग का
नाश… अभिनव क्रांति का शिलान्यास करें
********
फैला शक्तिशाली भुजाओं को
आलिंगन दें हम अनेकों प्राणों को
बढ़ायें अपने कदम आशा के नभ मंडल की ओर
मानवता के उत्थान उसके अज्ञानों की ओर…
जीवन की निस्तब्धता से आगे ही तो
स्वाधीनता का महान उषाकाल है…।
********
वंदेमातरमवंदेमातरमवंदेमातरम
जय हिंद!!!

1:44 PM
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1:44 PM

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इतना सबकुछ बाहर है…"फिर-भी"……


मौज़ों में फैला आध्यात्म
अज्ञानों पर बैठी गीता-गान है,
नि:सीम शून्य अनंत में
पंखों पर उड़ती आशा है,
उत्सव ही उत्सव मदिरालय में उसके,
क्यों अंतरतम खाली है…
इतना सबकुछ बाहर है, फिर-भी भीतर खाली है…

ममता और करूणा है, कण-कण में
बहती लहरों की तरह परिवर्तित संसार,
नया-नवीन-नूतनता लिए नित्य एक पतवार,
स्तर पर स्तर स्थापित,
क्यों विपन्नता धन कुबेर है…
इतना सबकुछ बाहर है, फिर-भी भीतर खाली है…

अंतहीन क्षितिज की विधा में
अबाध दृष्टि दौड़ती जाती है,
आवरण-आवरण में आनंद
मदीले सौरभ में घुलती जाती है
क्यों सदियाँ परेशान…मन भयभीत आँचल सूना है…
इतना सबकुछ बाहर है, फिर-भी भीतर खाली है…

प्रकृति की कोख में पुलकित ज्ञान-विज्ञान
तत्वों के भीतर कई और तत्वों के उत्सव हैं,
व्यापक युक्ति-युक्त गाम्भीर्य
चरणों से बहती पवित्र गंगा
घट-घट में विराजे विराट हैं,
क्यों अंतस में कृशता…गहरा अंधकार स्थित है…
इतना सबकुछ बाहर है, फिर-भी भीतर खाली है…

पत्थरों से भी पाषाण बनी नियति
हृदय में कुंठित स्वतंत्रता है,
कर्म-योग है पार जाने का रास्ता
पर अनुमानों में स्थित विनाश है,
कल्पना की उड़ान आच्छादित जीवन, माया बनी सारथी है…
इतना सबकुछ बाहर है, फिर-भी भीतर खाली है…

देख नहीं पाता सौंदर्य… विक्षिप्तता
दर्शन का आयाम है,
लगातार भागता "मौन"… कोलाहल
हलचल का आभास है,
उपर वर्षा नीचे नदियाँ, फैला सागर
अत्यंत विशाल है,
क्यों मानव का हर कोना ही बना अभिशाप है…
इतना सबकुछ बाहर है, फिर-भी भीतर खाली है…

"हमारे विचारों में गहनता है,
मगर देख जरा सजग नेत्रों से
बाहर कितनी सघनता है
फिर भी एक सरलता है,
यही तो परमात्मा कृत जगत की
अद्भुत प्रखरता है…"

"अविद्या बैठी है भीतरी नक्षत्रों पर
आकांक्षा की काली स्याही है
महाभारत होती है नस-नस में
तृष्णा की प्यास ललचाई है
बाहर तो भेद में ही अभेद छिपा है
मानव में ही तो ईश्वर बैठा है…"

सांझ में ही भोर भी है,
स्वप्न में ही साकार भी है
जिज्ञासा में ही आशा भी है,
आकार में ही निराकार छवि,
पुकार में ही वह आत्मन है…।
इतना सबकुछ मेरे चारों ओर फिर-भी भीतर का कोना खाली है…
1:43 PM
Post Was Published On

1:43 PM

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जागेगा इंसान अगर…!!!


लाखों आये और चले भी गये
अपनी-अपनी परिधियों को लांघकर
अपने स्वप्नों के सत्य साकार को दिखाकर
निर्माण किया प्रबुद्धता…विघ्नों को बाहों में समेटकर

कइयों की विरोचित कथाएँ की है हमने चर्चित भी
कालातीत हुई हैं… अब यादें उनकी पर
क्या कुछ सीखा है हमने इनकी शहादतों से
शोकपूर्ण अविराम अभिलाषा ने किया
शिलोच्छेदन भाग्य का

विष भरे बयार में देख यहाँ की भयाक्रांता
रूह रोती है दबी-दबी सपाट जमीन पर बैठकर
प्रत्यारोप-प्रत्यारोप-प्रत्यारोप
यहाँ भी- वहाँ भी- इस भूमि पर- उस भूमि पर
चहूं ओर अविश्वास गति में
सूक्ष्म अनंत से विराट मन तक
बस एक ही उच्छृंखलता है मात्र हृदय में

चलता जाता सिलसिला यहाँ का बोझिल है समाज इधर
स्वप्नों में भी दृष्ट दुनियाँ मथी हुई संग्राम में
एक चढ़ा है मचान पर गर्दन दबी है 'और' की
आपा-धापी भागम-दौड़ी में गंध बिखरी है विनाश की
चिल्लाते-भटके नवयुवकों ने किया लक्ष्य हलाल है
अपने भीतर के खोखले पन को भूले जाते
खम-ठोक कर आवाज बुलंद छुपा जाते उत्साह को

कब जागेगा भारत और यहाँ का नौजवान
कई सालों में कोई एक जागा था
नि:संग लिए इस देश का मान
राह पकड़कर जलाया है उन्होंने
अपने कर्मों के कई मशाल

आज यहाँ करोड़ों हैं पर सब हैं सोये मुर्दा समान
हतप्रभ व्यक्तित्व के मालिक ये
दिखता है खुद में शमशानों के निशान
कहीं इसी माटी की धमनियों में तो नहीं बहता
इस देश की नियति का अभिशाप
जब जागा तभी सवेरा…इस उक्ति को
कहते थकता नहीं ये नौजवान…

जागेगी इंसानियत यहाँ अगर
समाज अवश्य ही जागेगा
"भारत"- "India" का आदर्श… जीवांत होकर फैलेगा
रण होगा जब कण-कण में इतिहास पलट कर आयेगा
दौड़ पड़ेगा आध्यात्म यहाँ का
गूंजेगा ब्रह्मांड सुरों से तल-नाद घुमड़ युद्ध होगा
छायेगा तुफान नभ पर आगाज त्वरित हो बरसेगा
भींगेगी धरती यहाँ की ताप पाप का बह जाएगा
जागेगा उद्देश्य अगर तो…अंधकार फटेगा भा का…।
2:25 PM
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2:25 PM

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त्रासदी का समर है…ऐ "परमात्मा" !!!



सुंदर जगत ये सुंदर आवरण

अद्भुत प्रकृति पर दिवस का आगमन

किस ओर नहीं हर ओर मौज है

चातुर्दिक प्रेम दिव्य संगीत की लय है…

******

विपदा का एक ऐसा मंजर भी आता है

तराशी हुई दुनियाँ में भी एक ज्वाला फूट पड़ती है

नभ धू‍‍‍-धू करता हुआ उपवन हीं सारा जलता है‍‍‍‍,

सुंदर मानव मूर्ति इतिहास बनता जाता है…

*******

देख समर! गरज रहा था सागर जब

वो नभमंडल भी बरसा था

रक्त में सनी थी मेदनी

शिलाएँ छिंटों से आवृत हुईं

******

शंकर तेरी आपदाओं में क्या

विपदा की अग्नि भड़केगी

मृत्यु की आगोश में क्या

तेरी यह दुनियाँ तड़पेगी

******

नितांत प्यासे से लाचारों का

भूखों का और आशाओं का

फटती हुईं अबलाओं की छाती

विलखते क्रंदित उनके बच्चों की आकृति

******

थकी विपन्न बूढ़ी झर‍-झर आँखें

झुर्रियों पर भी तनी हैं भौंएँ

समता पर विषमताओं की लहरें

भीषणता पर प्रतिकार करती दिशाऍ

रक्तों को उद्वेलित करती लीलाएँ

******

उजड़ गया यह उपवन सोना

मात्र पत्थरों पर टूटी पड़ी

हुई सांसों की अस्थियाँ हैं.......

किसकी भावनाओं में स्थित

डूबी नजरे.......बह गईं... छोड़कर

******

ऐसे, हर जन्मों का न्याय विखड़ता है

हर साल लाखों घर लूटता है।

तेरी चरणों में श्रृंगार यह आभूषण कैसा

अपने ही पुत्र- पुत्रियों का यह मातम कैसा

******

कैसे नहीं तू तड़पता है, कैसे नहीं तू रोता है

ऐसी विनाश लीलाओं के दर्द में

कैसे नहीं तू विफड़ता है......

तीसरी आँख का यह कैसा ढंड विधान है

जो बरसते हैं तेरी अंशों पर हीं,

गिर पड़ते हैं तेरी भावनाओं की

मर्म हथेलियों पर हीं.......

******

आकर देख जरा इस सृष्टि को

और इस सुंदर मानव को,

तू भी तो एक पापी हुआ

हजारों नयनों में आँसू भर कर

तू भी तो शापित हीं हुआ

अब तू भी चैन कहाँ पाएगा,

शंकर क्या तू इनके दुःखों को सह पाएगा

******

ये नर और नारी ……

गरिमा प्रदत्त तेरी हीं आँखें हैं

सुंदर-सुंदर रचनाओं की यह

सर्वोत्तम प्रतीकात्मक आहें हैं

फिर, क्यों अपनी हीं तस्वीर को फाड़ना चाहते हो

अपनी हीं अंगों को बारंबार काटना चाहते हो

******

छोड़ दिया है... उस रण में

जिसमें लड़ना भी है और अंततः

तुम्हारे रथ- चक्कों के बीच में

दबकर मर जाना भी है...

जीतना हीं सिर्फ तुझे है और

हारना ही हम सबका धर्म है

******

गंगा की धाराओं में तैरती लाशें बनकर

गिद्ध- कौवों का आहार बनकर या

समाचार पत्रों में शब्दों की सुंदर शैलियॉ बनकर

******
बिखर
गया हूँ आज इन हरी वादियों में

उस ऊँची मीनार पर और

रुठती - तपती शिलाखंड पर

छूट गया अब तेरी मर्यादा का सम्मान

रुठ गया अब तेरी करुणा का गान

बस अब तेरी पूजा हीं बची है...

श्रद्धा का मोल तो बीक चुका

भक्ति का संग तो छूट चुका।

******

"अब कैसे हो तेरी अराधना

अब कैसे हो तेरी भंगिमा

बता भगवान तू हीं

अब कैसे हो तेरी प्रार्थना..."

2:27 PM
Post Was Published On

2:27 PM

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वहाँ भी अनंत...यहाँ भी!!!



वहाँ भी सरक कर पत्तों से बूंदे
अनंत में घुल जाती हैं
यहाँ भी शब्द ह्रदय की गहराइयों
से
टपक कर अनंत बन जाती है।

शुरू का बोध अगम्य निश्छल
कार्य कल्पना के पार नईया खेता
यहाँ भी नाचती अहसासों में
अबंध गीता की परिकल्पना।

कितने दिवस बीत गए उम्मीद-ए-आशाओं में
कई लालिमा प्रकृति में खिल कर मुरझा गईं
यादें अपने चरम पर "प्रियतम" को छू गईं
रास्ते बनते गयें और दिशाएं बदलती गईं
मगर याद रहा यहाँ की वो रूमानी छांव

कुछ की नवीन, कुछ प्रेम, कुछ प्रांजल रचनाओं
की भावावस्था...भुले नहीं पाता था और पुनः इस
दश्तुर में मिलन करनें आ गया ,
एकबार फिर मेरा पदचिह्न उभर कर
औरों के साथ हो लिया ।
12:58 PM
Post Was Published On

12:58 PM

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चला मुरारी "Director" बनने…!!!


बिहार के ग़र्द से
दिल्ली की ज़र्द तक और
मुंबई के "अर्ज़" पर चला
यह 'मुरारी' अब "Director"
बनने...!!!
UPSC(IAS)छोड़ने के
एक साल बाद भारी मुसक्कत
और मानसिक दुविधाओं को
परास्त करते हुए अंतत:
"Film Making"
के ग्लैमर के आकाश में उड़ने
को चाहा मन… थोड़ा परिवार
और अनेकानेक महानुभावों की
असफल आपत्तियों के बाबजूद…मेरे पैतृक गाँव
"जहानाबाद" से प्रथम,पूरे बिहार में से कुछ की
श्रेणी में आना भी रोमांचक लगने लगा और
मेरे कंधे इस बोझ से इतने दबे हैं कि कोशिश
के सहारे उस विशाल अनजाने मंच पर बेदियों
का निर्माण करने निकला हूँ…कहाँ पढ़ने लिखने
वाला यह शक्स दुसरे चेहरे में अपने स्वरुप
तलाशने निकला है…।
कुछ दिनों तक शायद मेरी अंतर्जाल पर उपस्थिति
न हो पर जल्द मैं अपना कैमरा MOVE करूँगा और
जल्द वापस आऊँगा तबतक बिदा "आपकी
दुआओं के सहारे"… लेकिन…
चला मुरारी "Director" बनने…!!! तबतक
क्रमश: रहेगा…
उस मंच की कथा का अगला अंक मेरे दोबारा
आने तक…!!!
12:09 PM
Post Was Published On

12:09 PM

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पुत्र का ख़त पिता के नाम…!!!



अनायास ही मन हो आया लिखूं आपको
अपनी भाषा का एक ख़त, पिता हैं आप !
शायद समझेगें पुत्र का दर्द…।

आज जाकर वह वेला आई है जब
उभरे है कागज पर अक्षर…
मेरे परम आदरणीय पिता श्री,
कैसे हैं आप!

जमाना बदल गया…हमारा साथ बदल गया,
तरीके और हालात बदल गए…
बाते तो दूरभाष पर हो ही जाती थीं
आप भी सोंचेगे यह पत्र मैं लिख रहा हूँ…क्यों ?

मगर शब्दों की आकृति में जो भावनाएँ
उठती हैं वह कलमों के सहारे पन्नों पर
छपती जाती हैं…
लिखते हुए कम-से-कम एहसास में डूबा
होता हूँ…इसकारण मैं यह पत्र लिख रहा हूँ।

लाख हठ थे मेरे, कुछ जो मेरे लिए होते थे
और कई जिसे करने को चाहता था यह 'मन'
उस पर आपका अंकुश बहुत बुरा लगता था…

स्कूल में जब मैं भटकता जा रहा था,
अपने रास्तों से लगातार दूर होता जा रहा था…
उस वक्त मेरा हाथ थाम कर या यों कहें
मेरा लक्ष्य टांग कर कंधों पर, पाने को
मंजिल रास्ता आंखों में दृष्ट किया.…

बढ़ता आकार मेरा चिंता बढ़ा रहा था…
जिस प्रदेश (बिहार)का था विद्यार्थी…वहाँ
अवसरों की कमियाँ आपका हृदय व्यथित
कर रहा था…

मैं जो था आपके सपनों का पंछी…जो
पूरा कर सकता था सारे अधूरे सपने को…
इसलिए भेजना चाहते थे कोई और परदेश
को…सुना दिया "माँ" ने आपकी बड़ी आकांक्षा
को और देख रहा था उस परदेश में,
अनेकानेक हाथों से खुद को होता तौल।

सहमा था मैं डरा हुआ…भीतर-भीतर आँसू थे,
वह वक्त भी जल्द आ गया जब मैं रेलगाड़ी
पर बैठा खिड़की से हाथ हिला रहा था…आज
सभी को छोड़ मैं कहीं और जा रहा था…
खुद को अकेला महसूस कर आपको
मन-ही-मन बहुत कोस रहा था…

आखिरकार उतर आया मैं अलबेले महफिल में,
बदला हुआ नजारा…परिवेश बदला था…
भाषा बदल गई थी…सब नया-नया सा था…
आँखें चमक जाती थीं दर्पण उभरा आता था

अपने कोमल हृदय पर अब बोझ महसूस
कर रहा था,जिम्मेदारियों को लाद कर यहाँ
जो आ पहुँचा था…सच करने को वह अधूरा सपना!

वक्त और स्थान बदला तो ढंग बदला रंग और
सैलाव भी…मैं उमंगों की धुन में बढ़ता चला गया
और पीछे छोड़ आया आपके पुराने क्षण…

अब आपके विचार मेरे सिद्धांतों को गवारे नहीं थे,
मैं यह समझने लगा था, अब जमाने की मैं तस्वीर
बनाऊँगा…अब आपके सपनों में कोई करतब नहीं
दिखता था.…

आया था मैं "IAS" बनने, जो बिहारियो का
सिद्ध अधिकार है…कई बार यहाँ की रंगीन छटा
में भटक भी जाता था…मगर 'कलक्टर' बनने के
जोश से दौड़ भी पड़ता था…

प्रोफेसर हैं आप और गुरु भी हैं
बनाना चाहते थे पुत्र को एक "IAS";
अब अलग तो होने थे न विचार हमारे
और अलग हो रहा था मैं…

घर की समस्त परेशानियों से दूर
न कभी पैसे - न कोई चिंता
जी लगा रहे पढ़ाई मे मेरा मात्र यही
थी न आपकी मंशा.…

सच कहूँ ! मैं अब सब भुला रहा था
ना ही पढ़ने से खुद को जोड़ पा रहा था
और ना ही आपको नजदिक लाकर कोई
अंकुश चाहता था…

कभी आश्रमों में कभी योगियों के
संगत में पड़ गया था मैं…पता नहीं क्यों
इस राह निकल आया था…

आया वह भी वक्त जब "IAS" बनने को मन
मचला और शुरु हुई तैयारी…कोचिंग जाने लगा
वहाँ भी मन भटकने लगा और मैं…
बालाओं के नाज़ उठाने लगा…।

घर से दूर आकर भी इतना गमगीन
कभी नहीं हुआ था…जितना उसे याद कर-करके
तकीया भींगोता था…रात-रात भर अंजनों में
उसको संवारा करता था…
प्रत्येक पल न जाने क्यों बेचैन सा रहता था।

लेकिन कभी न सोंचा, आपको "एक दिन" के किसी
अंतरे में…जिस सपने को पूरा करने आया था
भूला चुका था इस मैख़ाने में…

दो प्रयास तो ईमानदार था मेरा "IAS" का
उस वक्त साथ थी मेरी 'प्रेरणा' भी बहुत करीब से
मगर जो बीता वक्त था उसे लौटा न पाया मैं…।
मेरे जीवन का उद्देश्य बदल गया परिभाषाएँ
अलग हो गईं…

अब आपको याद करना भी बेईमानी लगता था,
कहाँ याद आता था वह सबेरा…जब परेशान होता
देख मुझे सीने में भींच कर पुचकारा करते थे,
बारिश में छाते को मुझपर डाल देते थे
गोद में मुझे उठाकर मीलों चला करते थे
मैं आराम से हाथों को झूला मान हिल्लोरियाँ
लेता था…

पर अब सबकुछ उलट-पलट गया है…किंतु
गुनहगार आपको भी मैं मानता हूँ…
क्यों नहीं फट्कारा आकर थप्पड़ की गुंज
क्यों नहीं सुनाई आपने…मुझे आपसे ज्यादा और
कौन जान सकता है…
हक है आपका इतना तो मुझपर वैसा ही जब
पहली बार स्टेशन पर गाड़ी चढ़ाया था…
क्यों समेट लिया उस हक को मुझ नादान की
भूलो से…

अत्यंत लज्जित हूँ मैं पिता जी…नहीं लाज
आपकी सपनों की रख पाया…
आपके सपनों का यह पंछी बहुत ऊँचा नहीं
उड़ पाया…।

लेकिन फिर भी मैं एक पंछी हूँ और
उड़ना मेरा धर्म…आसमान के उस छोर
तक तो नहीं पर पुन: नये ठौर को पाने
मैं कहीं और निकल गया………


आपका प्रिय आत्मजात
"दिव्याभ"
1:59 PM
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1:59 PM

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इकरार


इकरार
इकरार-ए-मोहब्बत बयाँ करते गुलशन-ए-फलक की दिवानगी तक
क्यों रंज हो जाता है गुस्ताखी के मुकाम पर;
छोटी-छोटी बातों पर तकरार का मजा ही कुछ और होता था,
आज वो छोटी सी नादानी पर मेहरबाँ न होकर चले गये
शायद फिदरत की नजरों में बयाँबा हो गये या अपनी जिंदगी की नज़म में आप ही खो गये...
सुरमा तारीफे काबलियत की हमद में लगा रखा था,
जिस ओर मैनें तेरी नजरों का ज़ाम पिया था,
ज़रा एकबार रुख से अपने शोख फसाने को तो हटा ले
मैपरस्ती का शौख बेइख्तियार न हो जाए...
बस एक नजर पर हम आपको बेहोश पड़े मिल ही जाएगें,
पर क्या आप भी मुझे और गिरने से बचा पाएँगे...?
तमन्ना है तेरी आवाज में शाम-ओ-सहर हो जाए
नजात मेरे रुह को और तुझे जमाने की रौनक मिल जाए...।

वैसे तो मैं उर्दू के संगत में अभी तक नहीं आया हूं किंतु भावनाओं
के सहारे कुछ कहने का प्रयास किया है--थोड़ा गौर फरमाएं इसमें गलतियाँ
हो सकती हैं--
3:39 PM
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3:39 PM

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