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प्रेम पंथ है…आत्म प्रतीति।



पता नहीं मुझे इस जिंदगी के और कितने मायने हैं…
समझ नहीं आता कौन दु:ख के, कौन सुख के हैं…
सभी को साथ लेकर परखना……? संभव नहीं,
वक्त निकलता जाता है, कई उलझे मोड़ छोड़ देता है
मदिले संरचना में इसके फिर देवदास चला आता है
अपने को भींगाकर रस में पतला सा दर्द फैला जाता है
तन्हाई है…इंतजार भी…प्रतीक्षा है अपने-आप की
तलाश लेकिन करता है मन… दूर रह रहे साथी की
एकांत मन जो मानता ही…नहीं!!!
जाकर ले आ उसे… अब छोड़ भी यह मायूस बिस्तर
भाग उधर…चल दौड़ भी जा… खो न जाये यह सुहाना मंजर
साथ है जबतक साथी का अम्बर सौरभ बरसाता है
मूल रुप में प्रकृति विकास क्रीड़ा में रम जाती है…
सभ्यता का पथ रुककर थोड़ी देर…
संस्कार देवी से पूछेगा…वो कौन दिव्य संगत में है
किसकी यह रचना होगी…
विस्तार सत्य का मनन हृदय में… कोलाहल संयत वातावरण होगा
जटिल भावना… लम्बी उदासीनता में भी
चाँद नयनों में खिला होगा…
आगोश में लिपट कर दिवा-रात्री
सपनों के सुमधुर गीत… पागल शमा…
घायल कामना का अंतरंग प्रीत...
आशाओं के चादर में लिपटा वह सिकुड़ा मेरा प्रेम।
सात्विक कर्म मुझसे अलग होने की, आज आज्ञा मांगता है
फिर से नये मदिरालय को नया दास दे जाता है…
खुद से अलग होकर उसमें…खुद को ही ओझल कर दूं
सौ बार डूबना हो फिर तो क्या, संग्राम सार्थक कर दूं
आनंद ढूँढने निकला था कोसो दूर गगन में
आज मगन हूँ अपने ही इस नीले शांत मन में…।
2:51 PM
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2:51 PM

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"प्रेम" पंथ है अटपटो……


"मैं" ने माना है…तुम चली गई हो दूर बहुत,
मेरी छाया से भी अलग, ख्वाबों के शरहदों के भी पार…
पर "हृदय" ने जाना है…उसमें रची-बसी हो तुम,
कहीं अंतरंग लय में भींगो रही हो तुम…

"मैं" ने माना है…दु:ख-विरह की उद्वेगावस्था हो तुम,
संताप की परमसीमा…एक मात्र इंतजार हो तुम…
पर "हृदय" ने जाना है…उसका अनुरागी श्रृंगार हो तुम,
प्रेम-उजाले में व्याप्त, जीने का आलिंगनबद्ध आधार हो तुम…

"मैं" ने माना है…खोई है हमने तन्हाइयों में सांसें,
क्षण-क्षण बहते शांति की मलहार, जीत का रोमांच…
पर "हृदय" ने जाना है…उसकी शीतल ज्योत्सना रूपी अलंकरण हो तुम,
रसमञजरी नीलकमल की सदृश्यता नयनों में ही वर्णित हो तुम…

"मैं" ने माना है…शोकपूर्ण स्थिर झील सी जल हो तुम,
भ्रमित उल्लास तीक्ष्ण ज्वाला, पीड़ा की शय्या हो तुम…
पर "हृदय" ने जाना है…मेरे प्राणों का आनंद,
चंचल अधरों की प्यास…मेरी 'प्रियतमा' हो तुम।

प्रीत है वह "मैं" की भी
और "हृदय" की भी रागनी है… पर
एक…सोंचता है "उसको"
दूसरा…जो "वही" हो जाता है…।
2:25 PM
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2:25 PM

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नि:सम्बल "मन"



हर श्लोक में एक मंथन है
हर ओज सत्यं शिवं सुंदरम है,
आज का है यह विकट व्याख्यान
हर भेद में एक अभेद है
हर दृष्ट में कुछ अदृष्ट है;

वो समृद्धि छुप-छुप कर लुभा रही
मेरे चित्त-चितवन को अनंत अलंकारों से
क्या पास वो अपने बुला रही…या
संकेत है उसका निरझर पल;

क्या हो रहा है…इस दिवस में
क्या बीत चुका इस काल से आगे
मत कुरेद ओ मालिक मेरे…
हृदयाकाश को सब ठहर जाता है…
उसके ख़्वाबों में जिज्ञासा बनके…।

प्रयाण पाता या तलाश करता…पर
मन की विस्तार का क्या होगा
इस चिंतित स्वर और व्याकुल चित्त
पर कब और कहाँ हस्ताक्षर होगा

मत पूछ ऐ मन मेरे ठहर जा…
कौन है जो तुझे जो यहाँ पहचानेंगा,
इस काला-युग के अवशेषों पर तेरी
अकुलाहट को कहाँ त्राण मिल पाएगा,

एक हवा का झोंका चल पड़ता है
व्यार बनकर उड़ चलता है…
क्या पता इसे है…उन समयों का
जो साथ यह अपने ले उड़ता है,

हर सांत में एक अनंत छुपाकर
जीवन की डोर को मृत्यु तक ले जाकर
आती है नित्य नये-नये रहस्यों में
आशाएँ-अभिलाषाएँ लेकर…

विश्वास नहीं हो रहा है…इसबार
चली ले उड़ मेरे अनुरागी वृत को
संघर्ष की सूचना पर भी मैं
बैठा रहा स्तब्ध बनकर…

जब सबकुछ बंधा-बंधा सा था
सबकुछ सधा-सधा सा था…
फिर कैसी यह विपदा है आन पड़ी
पिंजरे के पीछे कैसी होगी अभिलाषा मेरी,

यह घनावरण कहाँ से आया
यह सन्नाटा कैसा है…कुछ नजर
यहाँ क्यों नहीं आ रहा…
यह अंधियारा यह आवरण कैसा है,

जाता कहाँ किस ओर किधर मन
सिमट रही बेख़ौफ जिंदगी नि:शब्द रुदन
के आईने मेंबिखरती हुई सांसों में,
आज भागना चाहता हूँ मन से…
लेकिन , सफर "समाप्त" हो चुका!!!

2:27 PM
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2:27 PM

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किसकी तन्हाई……?


किसकी तन्हाई......?
किसकी आँखों में रुठती हुई संध्या की गान है,
किसकी कदमों में ढलती हुई निशा की आहट हैं,

किसके दामन में बचा हुआ सुखद एहसास है,
किसके ख्यालों में मेरी स्थूल कहानी की सांस है.

किसकी बातों में कशिश भरी रेशमी नजाकत हैं,
किसकी सतसंग संचेतना में मैं विभोर हो रहा हूँ,

किसके व्याकरणिक धारणाओं में मेरा सांसारिक अध्यास है,
किसके साध्य अस्तित्व में मेरे प्राणों का आनंद है,

किसकी आदतें मुझे अपने से बेखबर करा जाती है,
किसकी कहानियों की डोर कुछ याद दिलाती हैं,

किसके आँचल में बैठकर मैं पल-पल जाग रहा हूँ,
किसके सुंदरतम आलिंगनों में मदहोश हुआ जा रहा हूँ.

किसकी बादियों के हरे प्रांगन में संसार बसा है,
किसकी कोमलतम श्रृंगार के समक्ष प्रभात हँसा है,

किसके द्बारा दिये गये धरोहर को मैं संभाल कर रखता हूँ,
किसके इंतजार में,मैं आज-भी कुँवारा बैठा हूँ.

किसकी चेतना से मैं जीवन ज्योत कर रहा हूँ,
किसकी एक कसक से पूर्णिमा का चांद लिये बैठा हूँ,

किसके समक्ष मेरी मुस्कुराहटें प्राण वर्धक हो उठती हैं,
किसके अद्यतन केशों से गहरी अंधकार व्याप्त हो जाती है.

किसकी स्पृहात्मक अंगों का अदृश्य स्पर्श लेता हूँ,
किसकी करुण बंधनों का अमीत-रस पी लेता हूँ,

किसके विराग में अपने-आप को रुग्न किये बैठा हूँ,
किसके जीवन का आज भूत लिखने बैठा हूँ,

किसकी याद से वीरान जिन्दगी खिल उठती हैं,
किसकी आहटों के सहारे हृदय हर-पल खो जाता है,

किसके समक्ष मौत भी बेखबर होकर सो जाती है,
किसके सम्मुख विष भी वरदानदायक हो उठती है.

"आज किसके लिए मैं जाग रहा हूँ
किसकी गोद में अपना सर रखकर
सोने की कोशिश कर रहा हूँ……
किस कोने में किसके पास, किसके लिए…
आज भी…!!!

समीर भाई के "उदय भारत" से प्रेरित हो कर यह पोस्ट मैं दुबारा
डाल रहा हूँ क्योंकि इससे पहले यह नारद पर नहीं आया था…
12:34 AM
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12:34 AM

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प्रतीक्षा


प्रतीक्षा
अनेकों गलियों के अनंत छोरों पर,
अनगिनत चौराहों के मुडेरों पर,
कभी आसमां के सितारों में,
कभी इतिहास के पन्नों की स्याही में
पागलों की भांति तुम्हें तलाशता, खोजता,
दर्पणों में निहारता तेरे अ-बोले तस्वीर
से अनेकानेकों दफा रु‍- व- रु होता
पर पता नहीं क्यों इसमें तेरी रुह की संजिदगी, तेरे धड़कते हुए हृदय की आहट भी महसूस
नहीं कर पाता। एक बात मिट जाने की, कुछ जरुरतें पूरी होने की, यह संपूर्ण जीवन लूटा देने
के लिये कब न था मैं... तम्हारे संग चलने के लिये, तुम्हारे अरमानों की कद्र करने के लिये,
तब क्यों तुमने अपनी समस्त अनुभूतियों को समेट लिया और मेरी तकदीर को शानदार
सी दुनियाँ के सुनसान विस्तृत रेगिस्तान के रंध्रों में पीसने के लिये छोड़ दिया।
सचमुच ! तुम वही हो जिसे सपनों में मैं निहारा करता हूँ और मुस्कान भरे ओंठो से...
शर्मीली रेशमी आवाज की कशीश से ढ़ेरों बातें किया करता था।

क्या तुम वही आनंदमयी दिव्य छाया नहीं हो जिसके
पास बैठकर मैं अपने दर्द को भूल जाया करता था, थकन से चूर अपने बदन को चेतना
से आबद्ध कर मधुरतम श्रृंगार के उन क्षणों से अपने भीतरी अंतस् की रुपरेखा को
हर्षोल्लसित करने से नहीं चूकता था। नहीं-नहीं शायद तुम वो नहीं जिसने कभी
मेरे इस आवरण को प्रेम के रस से तृप्त कर अपने आलिंगनों की प्रत्यक्ष भावनाओं से
कभी उभारा था, अपनी नर्म हथेलियों के सुंदर स्पर्शों से मेरे रूखे बालों को उन... तड़पते
हुए पलों से परिचय कराया था, जिसके निश्छल क्रियांवयन विशेषणों से मेरी लेखनी की
धारा कुछ रुक सी जाती है।

किस आस की डोर को पकड़ कर तेरे कदमों के आने की
उन पलों में प्रतीक्षा करुँ जो शा...यद मेरे निरीह आँसूओं के क्रंदन से रुग्ण हुआ जा रहा है।
किन आँखों से तुम्हारे जागृत प्रतिबिम्बों को और पास से देखने की हिम्मत करुँ जिसमें
मेरा धर्म, आदर्श, जीवन-सारांश, संगति, विरक्ति सभी मुझसे तुम्हारे यहाँ होने न होने की याद
तुम्हारे आने न आने की प्रतीक्षा को उद्वेलित करते रहते हैं। शायद... कहीं उस तस्वीर की
लकीर मिल जाए जिसपर मैं अपनी आध्यात्मिक उन्नति को लूटा सकूँ और अपनी
आवरगी को जाम दे सकूँ...
"फरियाद कर रही है ये तरसी हुई निगाहें
किसी को देखे जमाना गुजर गया।"
7:13 PM
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7:13 PM

Divine India

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