माँ तू कहाँ हैं...?


जानते हो, जब किरणों की बौछार देह की स्थूल सम्भावनाओं को जाग्रृत कर रही थी उस वक्त कोई और बात घट जाना चाह रही थी, कई परोक्ष भावनाएं, भले ही धीमें, कुछ कहना चाह रही थीं -
मेरे अवगुणों के भंवर से गुण थोड़ा बाहर झाँक रहा था,
किसी अचेतन मन में नया उद्घोष हुंकारता जा रहा था,
कोई पाप तो था जो मेरे अवचेतन में कराह रहा था,
शायद मेरा अधूरा विन्यास जो सदियों से मुझे पुकार रहा था,
इस बेतरतीब भागम -भाग में किसी ने हल्के से कहा,
दुनियां जिसकी चर्चाओं में कितने शब्दों को ऐसे ही बहाए जा रही है 
क्या तू ने उसमें अपने हाथ नहीं भिंगोए अभी तक,
हाँ वो थोड़ा काला है, रफ्तार ज्यादा है,
बजबजाती हुई कुंठा, जंघाओं में दबी काम तेजना 
मन का पाप और उससे भी थोडा ज्यादा चुतियापा है,
पर अंधी आपा-धापी में कहाँ इतना समझाना समझ आता है 
जो भूला था वो कई और भूलों में स्वत: भूला ही जाता है 
पर अंतरतम डमाडोल था, त्वरित भावुकता का संग्राम था,
माँ को भूल गया पगले। 
ओ, ये क्या हो गया, पहले मन ने चीत्कार किया फिर योजनओं से 
आती हुई चिंतन ने कहा, कब भुला था जो याद करूँ 
माँ तुझे कब खोया था जो आज पा लूँ। 
लेकिन सत्य अधूरा था, यह तो मात्र तसल्ली भर प्रेम छलक रहा था,
कहाँ कोई क्षण याद आई तू, बस वो अकेले इत्मीनान की रेखा बनी रही तू,
तेजी से दौड़ता मनोभावों से जूझता मैं महासमर में वाद-प्रतिवादों से रंगा हुआ 
मस्त-मौला पियक्कड़; 
पोस्टरों में नाम पाने, जलते हुए समाज में 
धोखे से इनाम पाने, भटके हुए मैं में मेरा मैं तलाशने 
इतना कुछ तो कर रहा हूँ लेकिन उसमें मेरी माँ कहाँ हैं ?
भींगी हुई पलकें, राह संजोती आँखें 
प्यार से गालों को छूती स्नेह सजल हाथें,
मेरी दुष्टता कहाँ माँ को खोजती हैं !
सच कहता हूँ, 
कामातुर वेदना में ही सांत्वना ढूंढ लेती हैं,
अब जब माँ तू याद आ हीं गई है तो मैं भी क्या करूँ, 
थोड़ी कालिख मैं भी मल दूँ तो मेरा क्या जाएगा 
वक्त का सिर्फ एक घंटा मौन हो जाएगा लेकिन 
एक कपटी रेस में मेरा भी प्रेम शामिल हो जाएगा। 
माँ तू तब भी भूली थी, आज भी भूली है 
मेरे आडम्बर में तू नहीं, मेरी माँ नहीं।


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