जागेगा इंसान अगर…!!!


लाखों आये और चले भी गये
अपनी-अपनी परिधियों को लांघकर
अपने स्वप्नों के सत्य साकार को दिखाकर
निर्माण किया प्रबुद्धता…विघ्नों को बाहों में समेटकर

कइयों की विरोचित कथाएँ की है हमने चर्चित भी
कालातीत हुई हैं… अब यादें उनकी पर
क्या कुछ सीखा है हमने इनकी शहादतों से
शोकपूर्ण अविराम अभिलाषा ने किया
शिलोच्छेदन भाग्य का

विष भरे बयार में देख यहाँ की भयाक्रांता
रूह रोती है दबी-दबी सपाट जमीन पर बैठकर
प्रत्यारोप-प्रत्यारोप-प्रत्यारोप
यहाँ भी- वहाँ भी- इस भूमि पर- उस भूमि पर
चहूं ओर अविश्वास गति में
सूक्ष्म अनंत से विराट मन तक
बस एक ही उच्छृंखलता है मात्र हृदय में

चलता जाता सिलसिला यहाँ का बोझिल है समाज इधर
स्वप्नों में भी दृष्ट दुनियाँ मथी हुई संग्राम में
एक चढ़ा है मचान पर गर्दन दबी है 'और' की
आपा-धापी भागम-दौड़ी में गंध बिखरी है विनाश की
चिल्लाते-भटके नवयुवकों ने किया लक्ष्य हलाल है
अपने भीतर के खोखले पन को भूले जाते
खम-ठोक कर आवाज बुलंद छुपा जाते उत्साह को

कब जागेगा भारत और यहाँ का नौजवान
कई सालों में कोई एक जागा था
नि:संग लिए इस देश का मान
राह पकड़कर जलाया है उन्होंने
अपने कर्मों के कई मशाल

आज यहाँ करोड़ों हैं पर सब हैं सोये मुर्दा समान
हतप्रभ व्यक्तित्व के मालिक ये
दिखता है खुद में शमशानों के निशान
कहीं इसी माटी की धमनियों में तो नहीं बहता
इस देश की नियति का अभिशाप
जब जागा तभी सवेरा…इस उक्ति को
कहते थकता नहीं ये नौजवान…

जागेगी इंसानियत यहाँ अगर
समाज अवश्य ही जागेगा
"भारत"- "India" का आदर्श… जीवांत होकर फैलेगा
रण होगा जब कण-कण में इतिहास पलट कर आयेगा
दौड़ पड़ेगा आध्यात्म यहाँ का
गूंजेगा ब्रह्मांड सुरों से तल-नाद घुमड़ युद्ध होगा
छायेगा तुफान नभ पर आगाज त्वरित हो बरसेगा
भींगेगी धरती यहाँ की ताप पाप का बह जाएगा
जागेगा उद्देश्य अगर तो…अंधकार फटेगा भा का…।

18 comments:

Vikash said...

"कहीं इसी माटी की धमनियों तो नहीं बहता
इस देश की नियति का अभिशाप…"

सुन्दर रचना है। मन पुलकित हो गया।

राकेश खंडेलवाल said...

दिव्याभ

स्पप्नों में भी दृष्ट दुनियाँ मथी हुई संग्राम में

इस एक पंक्ति में सारा दॄष्टांत द्रश्य है.

बहुत सुन्दर लिखा है

Udan Tashtari said...

अति सुंदर, दिव्याभ. कितनी बार पढ़ें, कम ही है:

शोकपूर्ण अविराम अभिलाषा ने किया
शिलोच्छेदन भाग्य का…

--बहुत सुंदर..शब्द चयन बहुत बेहतरीन है, वाह!!

रंजू भाटिया said...

हर बार एक नया दर्शन पड़ने को मिलता है आपकी रचना में ...

स्पप्नों में भी दृष्ट दुनियाँ मथी हुई संग्राम में
एक चढ़ा है मचान पर गर्दन दबी है और की
आपा-धापी भागम-दौड़ी में गंध बिखरी है विनाश की
चिल्लाते-भटके नवयुवक किया लक्ष्य हलाल है
अपने भीतर के खोखले पन को भुले जाते
खम-ठोक कर आवाज बुलंद छुपा जाते उत्साह को

बहुत सुन्दर लिखा है...

महावीर said...

दिव्याभ
बहुत सुंदर रचना है।
आज के जीवन के आडम्बर-पूर्ण छल-छद्म से भरी हुई विकासशील सभ्यता की झांकी प्रस्तुत करते हुए, उसके कारण सर्वत्र अशांति, दम्भ, क्रूरता, लालसा आदि की वृद्धि दिखलाकर अंत में
आध्यात्मिक जीवन का संकेत बड़े सुंदर ढंग से दिया गया है।
'अगर' शब्द के प्रयोग से हल्की सी 'शंका' का आभास होते हुए भी 'आशा' की लहर
दौड़ जाती है। अनूठी अभिव्यंजना इस रचना का सौंदर्य है।
तुम्हारी रचनाएं पढ़ते हुए ऐसा लगने लगता है कि सभी रचनाओं में मानसिक संघर्ष, अंतर्द्वंद्व, अंतर्मन्थन आदि की प्रधानता है।
लिखते रहो।
महावीर

Anonymous said...

आपा-धापी भागम-दौड़ी में गंध बिखरी है विनाश की
best line of the poem and thanks for being so regularl in reading my blog

Anonymous said...

hi,
Divyab bhai
hope u r fin.
here i want 2 acquaint u about ur blog out look.
vastly praiseworthy job
at this tim realy u presented blog with a classy n elegant look
very well n creatively design thatz wat i realy anticipated.
specialy when i took 1 glance on that dazzling n exquisite red rose making me 2 wish n my hands.
suberb.........as roses my most darling n favorite.so lovely viewing it.
back groud looking so sober but nice.

wishing u d best

tak care

byee...

Kouser
Karachi(Pakistan)

Monika (Manya) said...

मित्र सबसे पहले बधाई एक और इतनी सुंदर रचना के लिये.. भाषा इस बार बहुत उत्तम लगी.. वैसे हमेशा ही अच्छी होती है..पर जैसा की मैने पहले भी कहा था की जब तुम इस तरह की प्रेरणादायक कवितायें लिखते हो तो थोड़ी सरल लिखोगे तो शय्द ज्यादा लोग समझ पायेंगे.. हो सक्कता है मेरी सोच सही ना हो.. बस एक ख्याल आया इस्लिये कह दिया..
वैसे पूरी कविता में कयी भाव हैं... करूणा भी, विषाद भी, देश की स्तिथि पर.. बखूबी प्रगट करती है.. साथ ही आज की पीढी को जागने का संदेश भी देती हैं..आशा और विश्वास भी है..सिर्फ़ अफ़्सोस नहीं.. बेहतरीन..

Anonymous said...

surely one of the most intriguing facets of ur writing...seems difficult in the beginning but as one read it with utmost calmness one starts understanding the meaning behind each n every word...
i really liked ur way of optimisim...
stupendous!!!

Divine India said...

विकाश,
मेरी रचना को पढ़ने और सराहने का शुक्रिया।

राकेश जी,
आपके शब्द मेरे लिए मार्ग खोलते हैं हमेशा… आपका शुक्रिया भी नहीं कर सकता शब्दों में।

समीर भाई,
आप ने कह दिया बहुत है मेरे लिए…।

Divine India said...

रंजू जी,
आप तो हमेशा से मेरे लिखा पढ़ती हैं और जो भी है…यह संबल और लिखने को कहता है…।

आदरणीय महावीर सर,
आपको यह रचना अच्छी लगी मेरा प्रयास सफल रहा…हमेशा डर सा रहता है की पता नहीं सर को कैसी लगे…।

रचना जी,
धन्यवाद…आपका,जो रचनाए अच्छी होती है वह हमेशा पढ़ी ही जाती है…।

Divine India said...

Kousar,
thax 4 ur commenting on my blog design...that's why i m doing lots of stuff on it...

मान्या,
तुम्हारा हमेशा ही से अच्छा ही दृष्टिकोण रहा है लेखनी को लेकर पर क्या करूं यही जो अंदाज है मेरा ज्यादा Real है…।

अनुज,
धन्यवाद!!!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Idea Of Romance Floats With The Silence Of Water……
Beautiful words to HEAD your Blog -- & the Red Rose looks so tranqil

"रण होगा जब कण कण मेँ इतिहास पलट कर आयेगा "-- वाह !
यथार्थ के प्रति उदासीनता है तो नव आशा के अँकुर के प्रति निष्ठा भी
है -- बहुत सँदर कविता लिखी है दीव्याभ - अपने मनके मँथन को जारी रखते हुए, हमेँ काव्य गँगा के रस का आह्लाद`प्रदान करते रहो
तुम जैसे युवा वर्ग पर हमारी आशा की बेल,ओपर जाना चाहती है ..
स्बेह,
लावण्या

Neelima said...

बहुत ही सुंदर कविता ! भावों का उत्कर्ष ,दर्शनमयी शैली ! वाह

Anupama said...

A complex but gudone....need to read again....jo cheeze paramarthi se judi ho vo waise bhi samajhne me waqt lagta hai....aur hum to zarra bhi nahi.....
In totallity very gud presentation n choice of words.

Anonymous said...

दिनकर से बहुत प्रभावित लगते हैं,भाषा में प्रवाह झलका,पर वाक्यों और शब्दों को थोड़ा विन्यसित करने की जरूरत है|अशुद्धियों पर ध्यान देंगे,अनेक हुईं हैं।क्षमा चाहूँगा पर आलोचना कर रहा हूँ

शुभकामनाएँ

Anonymous said...

दिव्याभ,
"आज यहाँ करोड़ों हैं पर सब हैं सोये मुर्दा समान
हतप्रभ व्यक्तित्व के मालिक
ये दिखती है खुद में शमशानों के निशान"

वाकई यहाँ करोड़ों हैं पर बेकार हैं मुर्दा समान हैं ।
वाह!बहुत प्रभावी,
वीर,भयानक,रौद्र रसादि से पूर्ण एक उत्कृष्ट रचना,
और बहुत प्रेरक।

शुभकामनाएँ

मीनाक्षी said...

जागेगी इंसानियत यहाँ अगर
समाज अवश्य ही जागेगा…
बहुत सुन्दर। आपकी भाषा शैली समृद्ध है । तत्सम शब्दों के साथ विदेशी शब्दों
का सुन्दर मेल देखने को मिलता है। मान्या की बात को नकारा नहीं जा सकता कि
सरल भाषा को लोग सहज रूप से आत्मसात कर लेते हैं।
नई पीढ़ी को संदेश देने वाली उत्तम रचना

"मेरी रचना पढ़ने का धन्यवाद । अगर आपने मेरी रचना ना पढ़ी होती तो
मुझे आपकी अर्थ व भाव से परिपूर्ण रचनाएँ पढ़ने का सुअवसर न मिलता"