त्रासदी का समर है…ऐ "परमात्मा" !!!



सुंदर जगत ये सुंदर आवरण

अद्भुत प्रकृति पर दिवस का आगमन

किस ओर नहीं हर ओर मौज है

चातुर्दिक प्रेम दिव्य संगीत की लय है…

******

विपदा का एक ऐसा मंजर भी आता है

तराशी हुई दुनियाँ में भी एक ज्वाला फूट पड़ती है

नभ धू‍‍‍-धू करता हुआ उपवन हीं सारा जलता है‍‍‍‍,

सुंदर मानव मूर्ति इतिहास बनता जाता है…

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देख समर! गरज रहा था सागर जब

वो नभमंडल भी बरसा था

रक्त में सनी थी मेदनी

शिलाएँ छिंटों से आवृत हुईं

******

शंकर तेरी आपदाओं में क्या

विपदा की अग्नि भड़केगी

मृत्यु की आगोश में क्या

तेरी यह दुनियाँ तड़पेगी

******

नितांत प्यासे से लाचारों का

भूखों का और आशाओं का

फटती हुईं अबलाओं की छाती

विलखते क्रंदित उनके बच्चों की आकृति

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थकी विपन्न बूढ़ी झर‍-झर आँखें

झुर्रियों पर भी तनी हैं भौंएँ

समता पर विषमताओं की लहरें

भीषणता पर प्रतिकार करती दिशाऍ

रक्तों को उद्वेलित करती लीलाएँ

******

उजड़ गया यह उपवन सोना

मात्र पत्थरों पर टूटी पड़ी

हुई सांसों की अस्थियाँ हैं.......

किसकी भावनाओं में स्थित

डूबी नजरे.......बह गईं... छोड़कर

******

ऐसे, हर जन्मों का न्याय विखड़ता है

हर साल लाखों घर लूटता है।

तेरी चरणों में श्रृंगार यह आभूषण कैसा

अपने ही पुत्र- पुत्रियों का यह मातम कैसा

******

कैसे नहीं तू तड़पता है, कैसे नहीं तू रोता है

ऐसी विनाश लीलाओं के दर्द में

कैसे नहीं तू विफड़ता है......

तीसरी आँख का यह कैसा ढंड विधान है

जो बरसते हैं तेरी अंशों पर हीं,

गिर पड़ते हैं तेरी भावनाओं की

मर्म हथेलियों पर हीं.......

******

आकर देख जरा इस सृष्टि को

और इस सुंदर मानव को,

तू भी तो एक पापी हुआ

हजारों नयनों में आँसू भर कर

तू भी तो शापित हीं हुआ

अब तू भी चैन कहाँ पाएगा,

शंकर क्या तू इनके दुःखों को सह पाएगा

******

ये नर और नारी ……

गरिमा प्रदत्त तेरी हीं आँखें हैं

सुंदर-सुंदर रचनाओं की यह

सर्वोत्तम प्रतीकात्मक आहें हैं

फिर, क्यों अपनी हीं तस्वीर को फाड़ना चाहते हो

अपनी हीं अंगों को बारंबार काटना चाहते हो

******

छोड़ दिया है... उस रण में

जिसमें लड़ना भी है और अंततः

तुम्हारे रथ- चक्कों के बीच में

दबकर मर जाना भी है...

जीतना हीं सिर्फ तुझे है और

हारना ही हम सबका धर्म है

******

गंगा की धाराओं में तैरती लाशें बनकर

गिद्ध- कौवों का आहार बनकर या

समाचार पत्रों में शब्दों की सुंदर शैलियॉ बनकर

******
बिखर
गया हूँ आज इन हरी वादियों में

उस ऊँची मीनार पर और

रुठती - तपती शिलाखंड पर

छूट गया अब तेरी मर्यादा का सम्मान

रुठ गया अब तेरी करुणा का गान

बस अब तेरी पूजा हीं बची है...

श्रद्धा का मोल तो बीक चुका

भक्ति का संग तो छूट चुका।

******

"अब कैसे हो तेरी अराधना

अब कैसे हो तेरी भंगिमा

बता भगवान तू हीं

अब कैसे हो तेरी प्रार्थना..."

20 comments:

रंजू भाटिया said...

बहुत ही सुंदर और प्रभाव शाली रचना ....एक लय में पढ़ी गयी

श्रद्धा का मोल तो बीक चुका भक्ति का संग तो छूट चुका। ****** "अब कैसे हो तेरी अराधना अब कैसे हो तेरी भंगिमा बता ऐ भगवान तू हीं अब कैसे हो तेरी प्रार्थना...।"

सवाल तो यह बहुत गहरा है .इस में लिखी कई बाते दिल को एक सच्चाई से अवगत कराती हैं

आकर देख …जरा इस सृष्टि को और इस सुंदर मानव को, तू भी तो एक पापी हुआ न हजारों नयनों में आँसू भर कर तू भी तो शापित हीं हुआ न .......कौन देगा इस का जवाब ????????

विशाल सिंह said...

अच्छी कविता है, भावप्रधान एवं संवेदनशील। सर्वशक्तिमान के प्रति मनुज की स्वाभाविक विक्षोभ की परिचायक भी।
पर अर्थ के विषय में यह अंश मुझे कुछ असंगत प्रतीत हुए।
"जीतना हीं सिर्फ तुझे है और
हारना ही हम सबका धर्म है।"
मेरी समझ से अगर जीतना उसे है, तो हारता भी वही है, अन्यथा अगर वह निर्गुण है तो न जीतता है ना हारता है। भगवान को विनोदी शक्ति, सृष्टि को उसके मनोरंजनार्थ या पूजनार्थ उसके द्वारा रचित उपक्रम नहीं माना जा सकता है। अगर ऐसा है तो ऐसे क्रूर विधाता से विद्रोह ही उचित है। सामान्यतः हम ईश्वर की ऐसी ही परिकल्पना करते हैं।
पर उपनिषदों ने जिसे ब्रह्म कहा है वह अव्यक्त है, अनुभव से परे, न पूजन से प्रसन्न होता है, न आपदा से दुखी, न उसके पास क्रोध है, ना ही दया। ना ही वह सृष्टि से पृथक है, ना ही सृष्टि का उससे।

Udan Tashtari said...

शंकर तेरी आपदाओं में क्या

विपदा की अग्नि भड़केगी

मृत्यु की आगोश में क्या

तेरी यह दुनियाँ तड़पेगी



---हमेशा की तरह बहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना. आनन्द आ गया पढ़कर.

परमजीत सिहँ बाली said...

पूरी रचना को पढ्कर ऐसा लगा कि मै एक प्राथर्ना मे डूबता जा रहा हूँ।बहुत सुन्दर रचना है।

बस अब तेरी पूजा हीं बची है... श्रद्धा का मोल तो बीक चुका भक्ति का संग तो छूट चुका। ****** "अब कैसे हो तेरी अराधना अब कैसे हो तेरी भंगिमा बता ऐ भगवान तू हीं अब कैसे हो तेरी प्रार्थना...।"

राकेश खंडेलवाल said...

दिव्याभ

बहुत सुन्दर तरीके से मानवीय भावनाओं को पिरोया है एक संगीतमय क्रम में. आशा, श्रद्धा , असमंजस और एक विश्वास.

बधाई स्वीकारो

Monika (Manya) said...

कुछ भी कहने के पहले कई बार पढा मैने.. अब भी कुछ ज्यादा नहीं कहूंगी.. कई भाव नज़र आये..प्रार्थना.. सवाल..एक तड़्प सॄष्टि के हालातों पर..करूणा..और साथ ही य़ाद आई तुम्हारी पोस्ट "अशुभ की स्म्स्या"... शायद जवाब है उस्में..
लिखते कैसा हो अब ये बार बार क्या कहों superb..

Gee said...

देख समर! गरज रहा था सागर जब
वो नभमंडल भी बरसा था
रक्त में सनी थी मेदनी
शिलाएँ छिंटों से आवृत हुईं

बहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना,सशक्त शब्दो का सटीक प्रयोग,बहुत प्रभावशाली बना हे,बधाई

Anonymous said...

gati..poornta..premagarh..udwignta..avyakt aastha..antardwand..saare bhav ek saath aur wo bhi itne vistarit roop mein...shabdon ki lay kam per rahi hai...tippani kerna toh jaise bas kuch keh dene jaisa hai,per is kavita ke vishya mein uchit yehi hai ki sirf padha jaaye or guna jaye...
vismaykari!!!

महावीर said...

बस अब तेरी पूजा हीं बची है...
श्रद्धा का मोल तो बीक चुका
भक्ति का संग तो छूट चुका।
दिव्याभ
बहुत सुंदर रचना है। भावों से ओत-प्रोत, सुंदर शब्दों का चयन हमेशा की तरह।

Mohinder56 said...

भावनाओँ और सँवेदनाओँ को अनुपम रूप से उकेरा है आपने अपने लेखनी द्वारा.

mahnoor said...

H!,

Widely commendable approach.

Truly as it sound the huge depiction of reality that’s cant be ignored by any one else.

Literally marvelous job.

Anupama said...

Hi Divyabh,

This is among the best of best creations of your's i read so far....your words have power of Divinity....

God Bless You

Divine India said...

ranju ji,
thnx for ur kind work...

विशाल,
सबसे पहले यहाँ आने का शुक्रिया…
आपने बिलकुल सही पकड़ा है…किंतु ज्ञान की बातों में
दृष्टिकोण छुप गया…मैंने परमार्थिक सत्ता की तो बात ही यहाँ नहीं कर रहा था…मैं तो आम जीवन की बात कर रहा हूँ…मैं भी अद्वैत वेदांती हूँ पर सगुण ईश्वर की उपासना व्यवहारीक रुप में मानव जीवन को आधार देती है…।

समीर भाई,
बहुत-2 धन्यवाद…आपका यहाँ आना मेरा मनोबल बढ़ाये रखता है।

बाली जी,
मेरी कृति को इतना सराहा आपका शुक्रिया।

Divine India said...

राकेश जी,
आप तो कविरत्न हैं…और जब कविता का पारखी कुछ अच्छा कहता है तो ज्यादा अच्छा लगता है…।

मान्या,
धन्यबाद जो गहरे से जाना मेरे विचार को…हाँ अशुभ की समस्या में ही इसका जवाब है…सही कहा!!

गायत्री जी,
आप यहाँ आईं धन्यवाद…
मेरा यह प्रयास था जो शायद सफल हो गया…।

अनुज,
कोशिश है…कुछ अच्छा लिखुं और तुम्हारी चाहना भी कि कम लिखुं पर बेहतरीन!!!

Divine India said...

आदरणीय महावीर सर,
आपका यहाँ आना ही मेरे लिए बहुत होता है…
आपके शब्द तो आशीर्वाद हैं…।

मोहिन्दर जी,
कोशिश की थी कुछ नया तरीका आजमाया जाए लगता है मेरा प्रयास ठीक रहा…।

महनुर ज़ी,
यहाँ पर आने का शुक्रिया…
लगता है मेरी रचना को बहुत ध्यान से पढ़ा है…आपने सच कहा है…।

अनुपमा,
शब्दों का प्रयोग तो जरुर मैं अलौकिक रूप मे करना चाहता हूँ पर तुमने पहली बार मेरा ध्यान इस ओर दिलाया है…।अबतक तो मैं अनजान रुप में ही यह करता था। धन्यवाद!!!

Ashok said...

मेरे पास शब्द नही हैं आपकी कविता कि प्रशंशा करने के लिए।
अत्यंत प्रभावशाली है आपकी लेखनी।
आपके आने वाले चीट्ठो का इंतज़ार रहेगा.
आदर सहित.

अशोक

राजीव रंजन प्रसाद said...

आपकी भावों पर पकड प्रसंशनीय है। कविता यही तो है जहाँ आप अपनी भावनाओं को पाठक के हृदय तक ठीक उसी तरह संप्रेषित कर सकें जैसा आप चाहते हैं और इसमें आप पूर्णत: सफल हुए है। चित्रण प्रभावी है जैसे:

नितांत प्यासे से लाचारों का
भूखों का और आशाओं का
फटती हुईं अबलाओं की छाती
विलखते क्रंदित उनके बच्चों की आकृति

तीसरी आँख का यह कैसा ढंड विधान है
जो बरसते हैं तेरी अंशों पर हीं,
गिर पड़ते हैं तेरी भावनाओं की
मर्म हथेलियों पर हीं.......


आकर देख …जरा इस सृष्टि को
और इस सुंदर मानव को,
तू भी तो एक पापी हुआ न
हजारों नयनों में आँसू भर कर
तू भी तो शापित हीं हुआ न
अब तू भी चैन कहाँ पाएगा,
शंकर क्या तू इनके दुःखों को सह पाएगा

जीतना हीं सिर्फ तुझे है और
हारना ही हम सबका धर्म है

गंगा की धाराओं में तैरती लाशें बनकर
गिद्ध- कौवों का आहार बनकर या
समाचार पत्रों में शब्दों की सुंदर शैलियॉ बनकर

बहुत सुन्दर रचना की बधाई।

*** राजीव रंजन प्रसाद

आशीष "अंशुमाली" said...

ये नर और नारी ……
गरिमा प्रदत्त तेरी हीं… आँखें हैं
सुंदर-सुंदर रचनाओं की यह
सर्वोत्तम प्रतीकात्मक आहें हैं
फिर, क्यों अपनी हीं तस्वीर को फाड़ना चाहते हो
अपनी हीं अंगों को बारंबार काटना चाहते हो
दिव्‍याभ जी.. आपका ब्‍लाग देखा.. बहुत सजा-संवरा और सुन्‍दर लगा।
ऊपर की पंक्तियां बहुत अच्‍छी लगीं। करुणा की रसधार आपके काव्‍य को सिंचित कर रही है, बधाई स्‍वीकारें।

Rachna Singh said...

Hi Divyabh
thank you for your latest comment on my blog i could not find your emial id so posting my thanks here.
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rachna

Divine India said...

अशोक जी,
आपके प्रेरणादायक शब्दों के लिए शुक्रिया…।

राजीव जी,
भाव ही तो धन है कवि के पास और इसी को मैंने सही रुप में पेश करने की कोशिश की अगर यह आपने पसंद की तो रचना सफल हुई।

कुमार आशीष जी,
आप आये बहुत-2 शुक्रिया…। ऐसे ही मनोबल से व्यक्ति का विकास होता रहता है।

रचना जी,
जो मुझे अच्छा लगता है उसे पढ़ना चाहता हूँ…आपको मेरी रचा पसंद आई…धन्यवाद!!!