यह निर्जरा है…प्रधन का…
संयुग है…एषणा का…
समग्रता है…आश्चर्य का…
चांदनी है…अपूर्व सौंदर्य शीतलता का…
जिंदगी लहर है…कौतूहल का…
इबादत है…परमात्मा के स्नेहावलंबन का,
संयुग है…एषणा का…
समग्रता है…आश्चर्य का…
चांदनी है…अपूर्व सौंदर्य शीतलता का…
जिंदगी लहर है…कौतूहल का…
इबादत है…परमात्मा के स्नेहावलंबन का,
छिपाया मर्म है कितने स्थापनाओं का
बड़ा अनोखा रहस्य भी है अंधकार का
भाषा भी इसमें और परिभाषा भी…
आशा का तिनका और एक सहारा भी
निराशा की लाठी है यह, तत्वज्ञान भी
बड़ा अनोखा रहस्य भी है अंधकार का
भाषा भी इसमें और परिभाषा भी…
आशा का तिनका और एक सहारा भी
निराशा की लाठी है यह, तत्वज्ञान भी
हम खिंचते जाते है आढ़ी-टेढ़ी लकीरें…
बिना तस्वीर की परिकल्पनाओं के…
राह पर बढ़ चलते हैं और कई मोड़ों पर
सोंचे बिना मुड़ जाते हैं……
अपने मंतव्यों पर बिना समझे चढ़कर उतर जाते हैं
गुजरते हादशों के पन्नों को बस यूं ही
पलटते जाते है…
बिना तस्वीर की परिकल्पनाओं के…
राह पर बढ़ चलते हैं और कई मोड़ों पर
सोंचे बिना मुड़ जाते हैं……
अपने मंतव्यों पर बिना समझे चढ़कर उतर जाते हैं
गुजरते हादशों के पन्नों को बस यूं ही
पलटते जाते है…
जिंदगी की इसी लहर को हम सब जीते चले जाते हैं।
सुबह होती है और रात गुजर जाती है अंगराइयों में
जिंदगी की यह लहर अपने ही कशमशाहट में
हंसते-रोते कट जाती है…खड़े रह जाते है उद्देश्य हमारे
जगत के अंधेरे साये में कढ़वे सत्य के सहारे
जिंदगी की यह लहर अपने ही कशमशाहट में
हंसते-रोते कट जाती है…खड़े रह जाते है उद्देश्य हमारे
जगत के अंधेरे साये में कढ़वे सत्य के सहारे
ख्यालों की सरिश्त से तरबतर आलम तकता है परेशान होकर
कोई रुककर किसी के हाथ भी तो नहीं सहलाता
मृदुलता व स्नेह वर्षा से मन को स्पर्श भी तो नहीं करता
पहचानना तो दूर…अंधी-दौड़ के साथी सब
अपने होकर भी मुख फेर लेते हैं…
कोई रुककर किसी के हाथ भी तो नहीं सहलाता
मृदुलता व स्नेह वर्षा से मन को स्पर्श भी तो नहीं करता
पहचानना तो दूर…अंधी-दौड़ के साथी सब
अपने होकर भी मुख फेर लेते हैं…
जिंदगी की यह भी एक लहर है…जो उदासी की बदली
से झांकती जाती है…नदियों पर तैरते, पर स्थिर दिखते
से झांकती जाती है…नदियों पर तैरते, पर स्थिर दिखते
पतवाड़ों के बिल्कुल नीचे से विशाल आवरण में बहे जाती है…
डुबकी लगाते है नदी में और तत्क्षण पूरा जीवन नया हो्कर
पिछे छूटे समय पर व्यंग करते बहे जाती है…।
डुबकी लगाते है नदी में और तत्क्षण पूरा जीवन नया हो्कर
पिछे छूटे समय पर व्यंग करते बहे जाती है…।
निगाहें ढूंढ़ती है उसे, वारिपूरित कर दे निर्जन उपवन को
दोनों हथेलियों से अपने जो सहलाए मातम को…
तन्हाइयों से पटा यह वृहत मैदान सुगम उत्सव को
उन्मुलित है कर रहा…अग्रगण्यता का मंत्र लिए
पकड़े विज्ञान के हाथों को…
प्रेम-अनुराग के मतलब को ही बदल रहा…
स्वच्छंदता इतिहास…!!!
दोनों हथेलियों से अपने जो सहलाए मातम को…
तन्हाइयों से पटा यह वृहत मैदान सुगम उत्सव को
उन्मुलित है कर रहा…अग्रगण्यता का मंत्र लिए
पकड़े विज्ञान के हाथों को…
प्रेम-अनुराग के मतलब को ही बदल रहा…
स्वच्छंदता इतिहास…!!!
और जीवन का मर्म यहीं खड़ा प्रतीक्षा कर रहा…
हम जीते चले जा रहे निरुद्देश्य…
वह बदलता बहता जा रहा है…
लगातार बिन रुके…बिन थमे
जीते तो जाते हैं हम इसे अपना तरीका मानकर
मगर इस जीवन को जीने का सलीका
गलत होता…।
वह बदलता बहता जा रहा है…
लगातार बिन रुके…बिन थमे
जीते तो जाते हैं हम इसे अपना तरीका मानकर
मगर इस जीवन को जीने का सलीका
गलत होता…।
19 comments:
दोनों हथेलियों से अपने जो सहलाए मातम को…
तन्हाइयों से पटा यह वृहत मैदान सुगम उत्सव को
उन्मुलित है कर रहा…अग्रगण्यता का मंत्र लिए
पकड़े विज्ञान के हाथों को…
प्रेम-अनुराग के मतलब को ही बदल रहा…
दिव्याभ बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ....
ख़ुद को ख़ुद में हर पल तलाश करती हूँ
जाने क्यूं मैं इस बेबस ज़िंदगी से आस रखती हूँ !!
जीते तो जाते हैं हम इसे अपना तरीका मानकर
मगर इस जीवन को जीने का सलीका
गलत होता…।
--क्या बात है, बहुत खूब. बधाई!!
अच्छी कविता सुन्दर भाव
शुभ कामनाऐं
सुबह होती है और रात गुजर जाती है अंगराइयों में
जिंदगी की यह लहर
अपने ही कसमसाहट में
हंसते-रोते कट जाती है…खड़े रह जाते है उद्देश्य हमारे
जगत के अंधेरे साये में कड़वे सत्य के सहारे
अरसे बाद पढ़ा है मैने फिर दर्शन की गहराई को
कितना सहज लिखा है तुमने एक टूटती अंगड़ाई को
हां सचमुच ही बालू कण सा वक्त फिसलता है मुट्ठी से
और छेड़ते रहते हैं हम, मौन सुधी की शहनाई को
हमारे लिये ये कविता थोड़ा कठिन हो गयी समझने के लिये, लेकिन अंतिम २ लाईन जो समझ आयीं वो अच्छी लगी।
जीते तो जाते हैं हम इसे अपना तरीका मानकर
मगर इस जीवन को जीने का सलीका
गलत होता…।
दीव्याभ,
गहरी सम्वेदना रखते हो -
काश जीवन के श्याम धवल के साथ इन्द्रधनुषी रँगोँ को भी जीयोगे तब
जीवन पूर्ण रुपेण परिपूर्ण हो जायेगा !
अस्तु, स्नेह व आशिष भेज रही हूँ !
" पल पल छिन छिन,
कण कण बिन बिन,
सँजोये जो हर दिन
घुल मिल जाते यूँ,
बिँदु तुहीन जल से
महासागर मे मिल -
अस्तित्व अलग है,
वारिधि का क्या ?
कण का क्या रज से ?
उस असीमता का पट
ऊँचे अम्बर फलकसे ?
मुझमेँ निहारीकाएँ,
मैँ आकाशगँगा मेँ,
अकाकार हुआ सर्व,
मौन गहन मनन मेँ !"
-- लावण्या
दिव्याभ जी,
आप की भाव भरी, रंग भरी, सार भरी, रचना को पढ कर अति आनन्द पाप्त हुआ...
बधायी
Kya kahun mere Mitr tumhe.. anupam hai tumhara Jeewan-Darshan..itne sundra shabadon mein jo tumne Jeevan ke yatharth ko wyakt kiya hai.. wo sachmuch atulniya hai..satya kaha hai.. Jeewan lahar hai bhaawnaon se bhari..aasha-nirasha, sukh-dukh.. Ibaadat bhi hai.. rahsymay h us paramshakti ke samaan.. jitna jaano utna kam padta hai .. jitna gahre jao aur aage jaane ko bahut kuchh bach jata hai.. humkai baar nirrudeshy , bina mantwya ke badhte jaate hain.. khud ke satya ko hi parma -satya maan lete hain..patan ahi kitne roopon kitne modon se hokar gujarte hain.. aur bas bahe jaate hain jindagi ke bahaaw mein.. "jindagi ke in panno par likhi jaati roz ek nayi kahaani hai.. jo aaj likha , dekha wo kal nahi tha.. aur na aane wale kal mein hoga.. isiliye ye jo bhi likhe.. use dil se jeena hai.." bas itna ho ki jeene ka salika ho... aur koi aisa jo saath de..
Bahut maarmik aur hridaysparshi hia tumhaari rachna.. kai baar padhi.. har baar naya arth mila.. kuch wyakat bhi kiya par shayd itne shabad nahi ki sab kuchh kah paaun.. par ye apne aap me paripoorn aur wyapak hai..itna jaroor kahungi.. itna sahaj darshan aur itna sundar.. saath mein urdu-hindi shabdon ki saamjsay ne chaar chaand laga diye.. Shukriya.. N KEP IT UP.. u r simply gr8...
अच्छा लग रहा है कि Divine India पर खामोशी के बाद फिर से भावों की गहराईयां, अर्थपूर्ण शब्दों की छटा ज़िंदगी की लहरों पर हिलोरें देने लगी हैं।
'ज़िंदगी लहर है' में शब्दों और भावों का बहुत ही सुंदर सामंजस्य है।
भावों का चित्रण three dimension से भी आगे निकल गया है।
बहुत सुंदर!
महावीर
हम जीते चले जा रहे निरुद्देश्य…
वह बदलता बहता जा रहा है…
लगातार बिन रुके…बिन थमे
दिव्याभ बहुत सुन्दर लिखा है । जीवन यह सब भी है और भी बहुत कुछ है । जिस दिन समझ आ जाए, जीने का कोई कारण ही न रहेगा ।
घुघूती बासूती
comments karne ke liye waqt le raha tha..jab ye post hui tab se lekar kai baar padhi aur wo samjhne ki koshish ker raha tha jo shyaad abt tak nahi samjh paya tha!!!shabd kya hain agar bhav aur darshan use sahi aakar aur roop na de saken..aaj ke daur mein har doosra aadmi lekh ya kavi ho jaata hai..aur is net ne toh nihsandeh ek aisi generation ko janam diya hai jo rational tareeke se dekhne pe bilkul astarhin aur aparipakav hai...
aapke lekh aur kavitayien hamessa ucch koti ki rahi hain..aur bhasha adbhut!jahan tak maine padha hai aur jo mera apna anubhav hai...ye kavita sresth rachanayon ki shreeni ki hai..
isliye likhte rahen...kyunki aap likhna deserve karte hain!!!
दिव्याभ भैया आज काफी दिनो बाद आपके ब्लाग पे आया तो ये पंक्तियां मुझे इस कदर प्रभावित करने की कोशिश की आपको इतल्ला करना वाजिब समझा.......
पंक्तियां हैं-
हम खिंचते जाते है आढ़ी-टेढ़ी लकीरें…
बिना तस्वीर की परिकल्पनाओं के…
राह पर बढ़ चलते हैं और कई मोड़ों पर
सोंचे बिना मुड़ जाते हैं……
अपने मंतव्यों पर बिना समझे चढ़कर उतर जाते हैं
गुजरते हादशों के पन्नों को बस यूं ही
पलटते जाते है…
जिंदगी की इसी लहर को हम सब जीते चले जाते हैं।
Hello Ranju,
अच्छा लगा…जो इतने प्यार से अपने भाव रखे…।धन्यवाद!!
समीर भाई,
काफी दिनों बाद लौटा था…पता नहीं लग रहा था कि कैसा व्यक्त कर पाउँगा…पर सभी के शब्दों ने संबल दिया…।धन्यवाद्…।
महाशक्ति,
लगता है पहली बार मेरे अंतर्जाल पर उपस्थिति हुई है…मेरे भाव पसन्द आये इसका शुक्रिया…।
राकेश भाई,
आपके शब्द ही कई अंतरंग़ में रंगे होते है…।
अच्छा लगता है आपके छंदों को पढ़ना…।
तरूण,
चलिए जो समझ में आया वही मेरे लिए काफी था…। मेरा जो उद्देश्य था कि कम शब्दों में जीवन की जटिलता को व्यक्त करने का…हो सकता है इस कारण वो सरलता न दे पाया…।
लावन्या मैडम,
आपके आशीष की बहुत आवश्यकता है…ऐसे ही मेरा उत्साहवर्धन करते रहें…।
मोहिन्दर जी,
आप आये यही काफी है…।
Manya,
अच्छा खासा बढ़ाई किया… :)
बस जो यथार्थ था वही लिखा है…।
आदरणीय महावीर सर,
आपका इसी प्रकार के मार्गदर्शन में मेरा आत्मिक विकास होता रहता है…मेरे लिए इससे गौरव की बात क्या होगी जो आपको यह कविता इतना पसंद आई…।
धुधूती बासूती जी,
आप यहाँ आई उसका शुकिया और जीवन के सभी पहलुओं को समेटना अपने आप में एक तपस्या है इसकारण जो क्रिया है उसको छोड़ कर्त्ता भाव पर मैने ध्यान दिया…।
मेरे अनुज,
तुमसे यही उम्मीद थी और शब्द तो तुम्हारे हमेशा ही उत्तम होते है क्युँ न तुम भी डायरेक्टर बन जाते हो :) लगता है यही रास्ता पूकार रहा है…।
गिरीन्द्र,
मैं तो काफी दिनों से ब्लाग पर आया ही नहीं था…।
बैसे मैं मुंबई चला आया हूँ…इसलिए व्यस्त हूँ…तुम्हारा मेल देखा तो ब्लाग पर गया…बहुत सुंदर टिप्पणी थी…चलो मेरा यह प्रयास सफल रहा क्योंकि
तुमने कहा था कि भैया मै आपकी कविता पूरी तरह से समझ नहीं पाता…।धन्यवाद!!
पकड़े विज्ञान के हाथों को…
प्रेम-अनुराग के मतलब को ही बदल रहा…
स्वच्छंदता इतिहास…!!!
और जीवन का मर्म यहीं खड़ा प्रतीक्षा कर रहा…
बहुत खूब ...अति सुंदर...बधाई
Too gud.....
Zindagi sahara bhi hai
zindagi madhuban bhi hai
pyar me kho jaao to
zindagi gulshan bhi hai
phir a gud presentation as always u do
हम जीते चले जा रहे निरुद्देश्य…
वह बदलता बहता जा रहा है…
लगातार बिन रुके…बिन थमे
जीते तो जाते हैं हम इसे अपना तरीका मानकर
मगर इस जीवन को जीने का सलीका
गलत होता…।
important is not the end but the journey and the means to achieve the desired end
i can say with full proud n respect that ppl sud read,understand n learn something from here...no jingling with same kind of words,expression n belief..
very true effort.
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