आगाज़ सजग; वास्तविकता मौन…।
कतरा-कतरा जीवन की डोर सिमटती
जाती है संध्या के लाल गर्भ में…
बेख़ौफ नाचती आहिस्ते से
घटती जाती है सांसों में…
दौड़ अंधी, भाग दुनियाँ की
बैचैन चेहरों में उगती है
मायूस पल तृष्णा की कैद
आजाद मन पर चढ़ती जाती है…।
सभी भाग रहे बस औरों से आगे-आगे,
किस ओर कहाँ किसलिए?? है यह बस प्रारब्ध!!!
खुद से या वक्त को छोड़
बोझिल झुके कंधे अपने अस्त की
राह तकते हैं…
नहीं छूटती गति चक्र की खाली वृत
आगे वक्त से जाकर जीने में
वर्तमान रुद्ध हो जाते हैं…
तत्पर है जो, साथ वक्त के चलने को
पागल विक्षिप्त कहे जाते हैं…।
भाग ओ दुनियाँ!!! भाग किधर भी…
भागेगा कितना तू उसी चक्र में
घूमता-घूमता कई बार वहीं…फिर और वहीं
संताप, अविद्या में घुटता ही जाएगा…।
विमुख पतित आवरण, संस्कार घसीटता
सभ्यता की चौखट पर अपना त्राण मांग रहा…
दोष है किसका? नहीं जानते हम,
दोषों के पिछे भागते हम, मूल स्वरुप
स्वच्छंद वयस को रौंदते जाते हैं…
होती है अज्ञान की अज्ञानता से भिड़ंत
लहूलुहान निस्तेज होकर लथपथ
विशाल नीले चादर में रेंगना जानते हैं…।
भरता नहीं ये जख्म कभी…अपनी सलाख़ों
से ही गोद-गोद कर जो बनाएं हैं…
भाव-प्रेम-स्नेह-करुणा डूबती है इस लहू-आंगन में
शोर तड़पते रुह की…
तिमिर-गहराई में लुप्त हो जाती है,
बढ़ती तपीस… धधकती ज्वाला में
प्रतिबद्धता अकुलाई है… बढ़ते हुए इस
अनजाते दर्द से मानवता भरमाई है…
कोई जागे…जाग से आगे, लाकर दे
आनंद-पुष्प के पुलकित हार…
सशंकित हतप्रभ नयनों में भर दे
आशा-गंगा की धार…
रोपे वह ऐसा अंकुरण जो करे सार्थक
यह नव-निर्माण… ।
16 comments:
बहुत सुंदर
बढ़ते हुए इस
अनजाते दर्द से मानवता भरमाई है…
बहुत प्रभावशाली चित्रण है ! प्रकृति में मानवीकरण मानव मन को सदा से मुग्ध करता आया है.
बहुत सुन्दर.........कोई जागे…जाग से आगे, लाकर दे
आनंद-पुष्प के पुलकित हार…
सशंकित हतप्रभ नयनों में भर दे
आशा-गंगा की धार…
रोपे वह ऐसा अंकुरण जो करे सार्थक
यह नव-निर्माण… ।
भरता नहीं ये जख्म कभी…अपनी सलाख़ों
से ही गोद-गोद कर जो बनाएं हैं…
भाव-प्रेम-स्नेह-करुणा डूबती है इस लहू-आंगन में
शोर तड़पते रुह की…
तिमिर-गहराई में लुप्त हो जाती है,
बढ़ती तपीस… धधकती ज्वाला में
बहुत सुंदर:)बहुत दिनों बाद आपक लिखा पढ़ा बहुत अच्छा लगा ...शुक्रिया आपका :) आपका कमेंट बहुत मिस कर रही थी मैं :) अपन ध्यान रखे
सबसे पहले तो मेरी पोस्ट पर टिपियाने के लिए धन्यवाद.
आपके ब्लॉग पर पहली बार आया और आते ही ऐसी जबरदस्त कविता मानव मन की पीडा को अभिव्यक्त करती हुई दिल को छू गई. आपने बहुत अच्छा लिखा.
बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती
दीव्याभ
सुना कि आप नालँदा पर फिल्म बना रहे हैँ -व्यस्त हैँ - ये तो अच्छे समाचार हैँ - खूब उन्नति करो !और ये कविता भी उत्कृष्ट लगी - बधाई !
और एक बात, मेरा नाती नोआ आपके जाल घर पर बजते सँगीत को सुनकर बहुत खुश हुआ और मेरे काँधे पे सर रख के सो भी गया ! आपको बतलाना चाहती थी - ये बात -- खुश रहिये -
(पँडित नरेन्द्र शर्मा की " षष्ठिपूर्ति " के अवसर पर डा. हरिवँश राव बच्चन के भाषण से साभार उद्`धृत ) कृपया लिन्क देखेँ
http://www.lavanyashah.com/
बहुत सुंदर और सारगर्भित , बधाई स्वीकारें !
कोई जागे…जाग से आगे, लाकर दे
आनंद-पुष्प के पुलकित हार…
सशंकित हतप्रभ नयनों में भर दे
आशा-गंगा की धार…
रोपे वह ऐसा अंकुरण जो करे सार्थक
यह नव-निर्माण… ।…………"…आमीन"
और आपका बहुत बहुत शुक्रिया,आप सदैव अपने बहुमूल्य शब्दों से हमारा उत्साह वर्धन करते हैं……बहुत आभार्……… पारुल
इतनी व्यस्तता में भी भावनाओं से भरपूर कविता लिखने के लिए समय निकालना वास्तव में साहित्य की सेवा है।
दिव्याभ, मैं व्यकतिगत रूप से भलीभांति जानता हूं कि फिल्म बनाने में आरंभ से लेकर एडिटिंग तक सोना तक कठिन हो जाता है।
तुम फिल्म को संभालते हुए भी इस ब्लाग को भी सुचारु रूप से चला रहे हो, धन्य हो। नालंदा पर डॉक्युमेंटरी फिल्माने के लिए आपको और यूनिट के अन्य आर्टिस्टों, कर्मियों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं!
दिव्याभ भाई,
एक अंतराल के पश्चात पढ़ा भावों का सुन्दर समन्वय. भारत यात्रा के दौरान मुंबई में दो दिन का प्रवास था. सभी को सूचना दी थी. कवि कुलवन्त सिंह जी से साक्षात हुआ. १० नवंबर को. ११ को दिल्ली आ गया था और १२ को दिल्ली के कई मित्रों के साथ गोष्ठी आयोजित की सुनीताजी ने. उसका विवरण उनके ब्लाग पर है. अगर अपना सम्पर्क नम्बर भेजें तो बात करूगा.
rakesh518@yahoo.com
sabse pahle aapke project milne per aapko dheron badhai...mujhe pata hai ki aap bahut accha karenge...
kavita ke vishay mein kuch bhi kehna mere liye thoda jyaada hoga kyunki ye lekhni aapki kavita se jyaada adhyatam hai,bhavnaiyen bahut gahri hain..shabd saargarbhit hain aur vichar prakhar hamessa ki tarah...
dhero badhai aur subhkaamnayien
आपकी कविता बहुत अच्छी लगी विशेषकर आखिरी पँक्तियाँ, बधाई स्वीकारें।
सबसे पहले तो कैसे हो मेरे लेखक-मित्र...? काफ़ी दिनों बाद ब्लोग पर आई हूं.. इसके लिये माफ़ी चाहती हूं...
ये नई कविता सच्मुच बेहद अच्छी लगी.. वैसे तो लोग इतना कुछ कह चुके हैं की कुछ बचता नहीं है मेरे लिये... पर आज की मानव मन की स्तिथि का सार्थक चित्र्ण है और अंत में जो आस का दीप जला है सच्मुच प्रशंसनीय है...
आगे वक्त से जाकर जीने में
वर्तमान रुद्ध हो जाते हैं…
तत्पर है जो, साथ वक्त के चलने को
पागल विक्षिप्त कहे जाते हैं…।
ये पंक्तियां भी काफ़ी कुछ कह जाती हैं..
n yes all the best for ur projects.. c u...
मानव मन की पीडा का बहुत सशक्त वर्णन . और अंत में आशा की किरण ।
कोई जागे…जाग से आगे, लाकर दे
आनंद-पुष्प के पुलकित हार…
सशंकित हतप्रभ नयनों में भर दे
आशा-गंगा की धार…
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