“हमेशा चाहना यही होती है कि पूछा जाये मुझसे मेरी निकटता
के दो प्रश्न…उलझु न जिसमें ‘मैं’ और दंभ पुलकित होता हो,
शायद ही कभी अपने सपनों की दो-चार पंक्तियाँ लिखता हूँ…
इच्छाओं व तृष्णाओं के जो शिखर बुनता जाता हूँ…
वह अंतस्थ तृप्त उदगारों में ही विसर्जित कर देता हूँ…
कहीं खुल न जाये भीतरी भेद मेरे अवचेतन मन के वातायन से
और सुन कर जान साथी मित्र मुझे छोड़ दूर न हो जाएँ…”॥
- मैंने मिश्रित प्रश्नों के उत्तर दिये हैं जिसे “राजीव जी”,
“राकेश जी” और “मान्या जी” ने मुझसे पूछा था…
प्रश्न— दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र…।
- कोई भी विचारशील पुस्तक जिसकी पंक्तियों पर रुककर
चिंतन किया जा सके और जो मानसिक कोष्टकों को भी
चोट पहुँचाए…ऐसी पुस्तकों में “Indian Philosophy”
by S RadhaKrishn & M Hiriyanna और
“रश्मिरथी”—राष्ट्रकवि "दिनकर" विरचित। - 'सिनेमा' समाज और मानव कुंठा का दर्पण है…आगे
निकलता समाज पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहता क्योंकि
उसकी मानसिकता नीचे देखने नहीं देती तो इसपर रहनेवाले
भूमि पर न खड़े होकर सदा आसमान में विचरण करते रहते
हैं…। इन आधारों को माना जाए तो “प्यासा” बेहतरीन फिल्म
है और समाज की कुंठा का परिणाम “अंकुर” में दिखता है।
प्रश्न—क्या लिखना पसंद करते है और क्या प्रेरित करता है?
- आनंद और Romance न हो तो यह जिंदगी बोझिल
हो जाए… दबी-दबी सी, घुटन भी होगी…चाहता हूँ बंदिशों से
पार भीतर उतर कर बाहर को टटोलूँ…प्रकृति के ताजे नूपुरों
पर बस एकबार खुल कर थिरकूँ “परमात्मा” की कलाकृतियों
में छिपे रहस्यों को पहचान सकूँ…जरा देख सकूँ कि उन
पत्तों पर क्या लिखा है…॥
प्रश्न—क्यों लिखते हो…?
- मैं लिखता नहीं…!!! लिखना बड़ा चतुराई का काम
है… और फिर लिखते तो सारे हैं…कोई कलम से तो कोई
तन्हाई में तो कोई बातों से…। मैं तो बस मानसिक तरंगों
और शब्दों का व्यापारी हूँ।
प्रश्न—जीवन की कोई सनसनीख़ेज़, धमाकेदार और
रोमांचकारी घटना…।
- जीवन बनाम गति…अर्थात इसके साथ-साथ
कथाएँ, कहानियाँ, घटनाएँ चलती रहती हैं…बस वही घटनाएँ
स्मरण में रहती हैं जो बहुत दु:ख या चरम सुख के स्तर
पर ठहर जाती हैं, लेकिन छोटे-छोटे वाक्यांश जो सदा हमारे
साथी होते हैं वही भूला हो जाता है और दूर के शोर याददाश्त
बन जाते…लेकिन प्रश्न के लिहाज से जब मैं 14 साल पहले
संन्यास लेने निकला था और मेरा “अनुज” मेरे साथ था…
उसकी पलकों से बंधे सलील ने स्नेह की नई परिभाषा मुझे
सिखलाई, हाथ पकड़ कर तो रोक नहीं सकता था; वो आँसू
जेल बन गये थे।
प्रश्न—किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसंद हैं…।
- सच कहा जाए तो कोई भी चिट्ठा अपने-आप में
पूरा या उत्कृष्ट नहीं होता, हाँ उसकी कुछ पोस्ट जिसे आप
Topic कह सकते हैं अच्छा लगता है और उसपर ही टिप्पणी
भी करता हूँ…अभी तो हिंदी ब्लागिंग स्वयं रास्ता ढूंढ़ रहा है…
तो इसकी सीमाएँ संकुचित हैं। - चूंकि मेरे करीबी मित्र भी हैं इसमें और गुरूजन
भी और ठहरा मानव तो पूर्वाग्रह होना स्वभाविक ही है तो
उनकों बिल्कुलअलग मानता हूँ। सीखना चाहता हूँ तो
सभी को पढ़ना भी होताहै जो अच्छा लगा
“बस ओढ़ ली चदरिया उसकी”।
प्रश्न—आपकी स्व-रचित पसंदीदा रचना कौन सी है?
- प्रत्येक लेखनी पुत्र के समान होती है एक लेखक
के लिए, लेकिन कुछ भावनाएँ हमेशा तैरती रहती हैं और
जब उन्हें शब्द मिल जाते हैं तो वह जीवंत हो उठती हैं…
ऐसी ही रचना हैं “वो कौन है” जिसे अभी पोस्ट नहीं किया
है किंतु मौका मिलने पर डाल दूँगा।
प्रश्न—कला पक्ष का भाव पक्ष से रिश्ता कितना महत्वपूर्ण है?
- एक प्रकार से कला पक्ष भाव पक्ष ही है…शब्द
अलग-अलग हैं पर संस्कार एक है…।
प्रश्न—लिखने से ज्यादा पढ़ना मन-पसंद क्यों विधा है?
- भाई यह तो दो-धारी तलवार है…ज्यादा पढ़ना व्यक्ति
को विचार संपन्न बनाता है…अज्ञान को ज्ञान से जोड़ता है
लेकिन साथ में अहंवाद को भी प्रश्रय देता है जब हम स्वयं
को विद्वान समझने की भूल करने लग जाते हैं।
प्रश्न—आपके जीवन के दो महत्वपूर्ण व्यक्ति…।
- प्रत्येक के जीवन में सामान्यत: माता-पिता से
ज्यादा महत्वपूर्ण कोई नहीं हो सकता लेकिन मेरे लिए
“मेरी पगली’या” और “मेरा अनुज”!! एक सत्य है तो
दूसरा सार्थक!!!
प्रश्न—अपनी एक अच्छाई और बुराई…।
- मेरी जो अच्छाई है वही बुराई भी है यानि जो मैं
चरम रुप में करता हूँ वह बुराई है ऐसा मानता हूँ और
शांत आश्रय मेरी अच्छाई॥
प्रश्न—मूड खराब होने पर कौन सा गाना सुनते हैं?
- मूड खराब होने पर कोई गीत सुन भी कैसे सकता है!!
अंधेरे कमरे में तन्हाइयों पर अकेले-पन का सर रखकर
निरीह और निर्बल भावनाओं को आँखे बंद कर घंटों देखना
और तलाश उस स्थिती की जहाँ मैं रुक जाऊँ।
प्रश्न—आप किसी साथी चिट्ठा-कार से प्रत्यक्ष मिलना
चाहते हैं, तो वह कौन है और क्यों?
- बिल्कुल नहीं!!! कितने सुंदर-सुंदर भावनात्मक
चिट्ठे रोज़ लिखे जाते हैं, हर दिन उनकी सुंदरता
व्यक्तित्व की प्रखरता उनके भाव में अनुभूत होती हैं…जो मेरे
मन को आमोद-प्रमोद से खिलखिलाती हैं, मेरा चित्रकारी मन
आवेश की ब्रुश से बहुतों के Sketch बना रखे हैं तो कृपया
जीने दे मुझे मेरे जाने तस्वीरों के सहारे जो परम पाकीज़ा और
परम पुनीत भी है…।!!!अवर्णनीय!!!
जो मजा अदृष्ट में है दृष्टता तो महज खेल है…।
मेरा प्रश्न…सभी ब्लागर मित्रों से है--
आपको अपने भीतर की "शून्यता" में क्या दिखता है जिसे
पाकर खो दिया…।
22 comments:
कुछ टिप्पणी करना धृष्टता होगी। मेरी समझ सीमित है। किन्तु अच्छे चित्र को
सराहने के लिए चित्रकार होना आवश्यक नहीं। सो जो समझ आया अच्छा लगा।
वैसे भी एकबार जाकर आपका लिखा सब पढ़ूँगी तो शायद कुछ आपको जान सकूँ ।
घुघूती बासूती
यार क्या जलेबी-सी बनाते हो . साफ-साफ लिखा करो.
कूटनीति, कौटिल्य सिखा कर गया तुम्हें दिव्याभ ! मानता
जिस चतुराई से प्रश्नों की बौछारों को गया संभाला
उस से यह प्रतीत होता है, गहन अध्ययन किया कला का
जीवन के दर्शन को कौशलपूर्ण, शब्द में तुमने ढाला.
आखरी जवाब सबसे ज्यादा पसन्द आया।
सबसे पहले तो शुक्रिया मेरे सवालों के जवाब देने का..जिसकी मुझे उम्मीद कम थी.. मुझे जो जवाब अच्छे लगे वो हैं, .. आपके जीवन के दो मह्त्त्व्पूर्ण व्यक्ति ... उल्लेखन्नीय घट्ना.. और किस चिट्ठाकर से प्रक्त्यक्ष मिलना चाहेंगे.. ये कहना की जवाब ईमानदार और स्टीक थे घिसा-पिटा है और सच भी... और ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी क्यूंकि ये आपके उत्तर हैं आपके बारे मॆं.. कोई रचना नहीं की टीका टिप्पणी करुं.. कि ये अच्छा लगा वो नही.. व्यक्त्ति को उसके सत्य में स्वीकारना चाहिये .. और उस सत्य क मैं आदर करती हूं.. धन्यवाद..
दिव्याभ जी पहली बार इतनी ध्यान पूर्वक आपकी पोस्ट पढ़ी। यही समझ सका कि या तो आप प्रकृति से ही चिन्तनशील स्वभाव के हैं या जीवन ने आपको अनुभव की भट्टी में तपाकर निखार दिया है।
बधाई इतने सुन्दर जवाबों के लिए।
अच्छे जवाब है, गूढ है, रहस्यमयी।
अच्छा लगा जब आपने कहा :
मैं लिखता नहीं…!!! लिखना बड़ा चतुराई का काम है… और फिर लिखते तो सारे हैं…कोई कलम से तो कोई तन्हाई में तो कोई बातों से…। मैं तो बस मानसिक तरंगों और शब्दों का व्यापारी हूँ।
और लेकिन मेरे लिए
“मेरी पगली’या” और “मेरा अनुज”!! एक सत्य है तो दूसरा सार्थक!!!
सत्य पर पर्दा मत गिराइए, ज्यादा प्रकाश डालिए। हो सकता है हम कुछ मदद कर सकें।
अच्छा लगा, आपके विचार जानकर।
अच्छा अनुभव रहा आपके विचार पढ़ना. सब कुछ पढ़कर भी अनजाना सा ही रहा हर पहलू. :)
-यही सही है.
होली मुबारक, दिव्याभ भाई!!
सुचयनित शब्दों के माध्यम से दिये गये गूढ़ और गम्भीर उत्तर विचारणीय हैं।
प्रश्नों के उत्तर का आग्रह स्वीकारने और उसे पालन करने के लिये अभार।
बहुत ही स्टीक उतर दिए हैं आपने ...अच्छा लगा आपके बारे में जानना ...होली मुबारक हो आपको ...
"आपने शब्दों का तो मंदिर जैसा खड़ा कर दिया,
भाव और दर्शन का ये उत्कृष्टतम संयोग है,
लगता है जैसे दोनों एक हो गये हों……
सर्वस्व…संपूर्ण…रुप में 'एक'।
प्रशंसा अब छोटा शब्द है शायद।"
बासूती जी,
मैंने मन के भावनाओं को ही समेटने का प्रयास किया है…आपका यहाँ आना स्वयं ही एक दृष्टि देता है…।
………???
जो खुद को छिपाए आये और अनुबंधों में लपेटे क्या कहा जाए उस पे एक जलेबी मेरी थी एक आप तैयार कर गये… :)
राकेश जी,
आपके प्रश्नों का उत्तर दे शायद कर
पाया हूँ संतुष्ट ये मेरा कार्य सफल
हुआ…अब मान लेता हूँ!!
उन्मुक्त जी,
शायद पहली बार आप यहाँ आये हैं,
मेरी कोई भी पंक्ति आपके हृदय के
पंखुडियों को खिला गई…यह प्रयास
हर मतलब में सफल ही रहा ।
Manya,
जो भी लिखा है चाहे वह कितना भी रहस्यपूर्ण क्यों न दिखे पर सत्य जरुर है…थोड़ा एकाग्रता से झांकने की आवश्यकता है।
Shrish Bhai,
मेरी पंक्तियों से ज्यादा सुंदर आपकी टिप्पणी है…।
जीतू भाई,
चलिए आखिरकार आपको भी ये प्रश्नोत्तरी खिंच ही
लाई…आने का शुक्रिया…।
समीर भाई,
जो भी लगा मुझे मेरे सच के करीब उसे बैसे ही
शब्दों में ढाल दिया…।
राजीव जी,
आपने सर्वप्रथम मेरा नाम टैग़ किया ये मेरा गौरव था…। जो भी उचित लगा मैंने स्पष्टत: पूर्णस्वीकृति में स्वीकार करते हुए लिखा है…।
रंजू,
यथार्थता वही होती है जो परमसत्य न हो फिर भी सत्य के करीब हो…ऐसा मानते हुए मेरा यह लेखन मात्र प्रश्नों व उत्तर का संयोजन नहीं था वरन एक आम युवा मानसिकता का परिचायक भी…।
प्रिय अनुज,
सच कहा!!बनाने चला तो था शिवाला पर मंदिर ही बन पाया…।
"आपको अपने भीतर की "शून्यता" में क्या दिखता है जिसे
पाकर खो दिया…।
सच यह है कि "शून्यता " इन्सान की निजता है और जिसने शून्य को ही पा लिया उसने बहुत से असंख्य सवालों का उत्तर भी पा लिया। तभी तो हम कह सकते हैं, "अहं ब्रहाम्हासि।"
प्रभात जी,
मेरे प्रश्न को परलोक की सिद्धि से न जोड़े क्योंकि
वहाँ शून्य नहीं है…उसे किसी भी शब्दों का जामा
नहीं पहनाया जा सकता… भीतर की शून्यता मात्र आपके अंदर का वह पक्ष जो जान कर भी अनजाना
बना है…।
maine kab kaha ki aapke uttar rahsaymay hain.. maine to kaha imaandaar aur sachche hn.. kahin kisi aur ke comment ko to mera nahin samjh liya na.. thik se padhiye.. mujhe koi rahsay nahin laga. .. poori ekaagrata se padhe hn aapke uttar .. ye aapko bhi pata hai... nahin?
१२०/१००
आपने सारे बांउन्सरस को बडी अच्छी तरह से हुक कर के अधिकतम रन प्राप्त किये हैं.. बधाई
"आपको अपने भीतर की "शून्यता" में क्या दिखता है जिसे
पाकर खो दिया…।"
- खोना -पाना तो जीवन की निरंतर गति का अभिन्न अंग है.. इसलिये उसके लिये भीतर कोई शून्यता नहीं.. भीतर की शून्यता में मुझे अपनी तलाश है.. खुद कॊ पाना है.. जिस दिन स्वयं को पा लूंगी .. शायद ये शून्यता ना रहे.. खुद को जितना समझती जाति हूं लगता है अभी और भी बहुत कुछ है.. हर बार एक नया अनुभव होता है खुद से..
Divyabhji
Mujhe mere bheetar ke shunya main ek tarang sunaai deti hai aur gehere andhkaar ke baad roshni se bhakaabhak ek bindu dikhaai deta hai...jo maine kho diya hai vo hai subconsious mind se connection
Aapke jawaab paakazgi se sarabor hain kintu unka sahi matlab samajhne ke liye gehre utarna tabhi sambhav hai....jab koi aapse rubroo hua ho.....Mere zehan mai bas ek hi khayaal ata hai....."Stranger,Who are you? "
परम आदरणीय महावीर सर
प्रणाम,
आपके आशीष स्वरुप स्वयं में एक उत्थान की गति बनी रहती है…जो परम आवश्यक है…। ठीक समझा आपने,जो मैं कहना चाह रहा था उसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया सभी समझते रहे की प्रश्नों का यह उत्तर है!!!
सर…मैं जिस शून्य की बात कर रहा हूँ वह "नागार्जून"के संवृत्ति शून्य(स्वभाव-शून्य) या प्रपंच शून्य से भिन्न है,क्योंकि माना की स्वभाव-शून्यता व्यावहारिक जगत की बात है लेकिन प्रतीत्समुत्पाद को मानने पर यह शून्य भी स्थिर नहीं है…तो जो बचता है वह "संस्कार" और आम मानव इस अवस्था को भी देख नहीं सकता…तो शंकर के व्यावहारिक जगत के "जीव" के भीतर की सत्यता का वह स्वरुप है जिसे हम जानकर भी भूलते रहते है और यही वास्तव में "भीतरी शून्य" को जन्म देता है जहाँ गहरा अंधकार है…।
अनुपमा,
आने का शुक्रिया और शायद महावीर सर के बाद तुमने ज्यादा गहरे से समझने का प्रयास किया है…और मैं दिव्याभ ही हूँ अनजाना नहीं।
Post a Comment