अशुभ की समस्या…!!!
ऐसे काफी सारे प्रश्न हैं जो
हमें उद्वेलित करते रहते हैं…
और उनमें सबसे महत्व-
पूर्ण दार्शनिक दृष्टिकोंण से
है कि जब इस जगत का
निर्माता ईश्वर है और जो
परम शक्तिशाली भी है तो इस जगत में अशुभ क्या कर रहा
है…अगर ईश्वर करुणामय व दयालु है…सभी को प्रेम करनेवाला
है तो इस जगत में तो चातुर्दिक आनंद ही आनंद होना चाहिए
था। मानव जीवन में दु:ख-संताप-लोभ की व्यापकता और भयभीत
कर देनेवाली प्राकृतिक विपदा कई रुपों में स्नेही स्रष्टा के विचार
को अविश्वसनीय बना देते हैं।
मेरा मानना है कि एक सर्वशक्तिमान सत्ता से
अशुभ की अपेक्षा नहीं की जा सकती…परमात्मा ने जब इस
प्रकृति को रचा तो मानव को कोरे कागज की तरह ' जगत ' थमा
दिया और साथमें शाश्वत बुद्धि और विवेक को दिया जिसका
उपयोग वह स्वतंत्ररुप में कर सकता था…।लेकिन संतुलन की
जो स्थिती हमें रखनी चाहिए थी वह लोभ-संवरण के कारणत:
टूट गई… जो परमशुभानुभूति है वो अशुभ का निर्माता नहीं हो
सकता !!! ये तय है!!! ईश्वरवादियों के इस तर्क में अभिनंदन पूर्ण
तर्कना विद्यमान है।इस जगत में दृष्टिगत "पाप" कोई अशुभ
नहीं जिसे दार्शनिकों ने इतना महत्व प्रदान किया है…क्योंकि
अशुभ की समस्या तो तब आयेगी जब सच में अशुभ विद्यमान
होगा।जो "पाप" इस जगत में सर्वत्र व्याप्त दिख रहा है…वस्तुत:
वह एक "परम शुभ" ही है, जो मानव जिज्ञासा के लिए रहस्यमय
अंधकार है…जो विश्व विकास की संभावना है, यह न होता तो
संघर्ष की उत्पत्ति संभव ही न हो पाती…यह तो एक " विरोधी शुभ "
है… चूंकि मानव सामान्यत: सीमित ज्ञान वाला प्राणी है जो जिज्ञासा
के कारण ज्ञान को सक्रिय करता रहता है…अगर यह न होता,वह या
तो जड़ बन जाता या इस पृथ्वी के पूर्ण सर्ग के पहले ही प्रलय की
क्रिया आरंभ हो जाती…। अभी तो जगत पूर्णत: खिला ही नहीं है तो
विकास ऊर्ध्वमुखी है लेकिन जैसे ही यह खिल उठेगा यह वापस उसी
स्थिती में लौट आएगा…क्योंकि जन्म और मृत्यु दोनों ही
परम सत्य है…।
10 comments:
है प्रश्न बड़ा प्राचीन, मित्र
सुलझा न सके इसको युग से
क्यों सुबह आई, शाम हुई
क्योंकर यह उम्र तमाम हुई
क्या पुण्य हुआ क्या पाप हुआ
इक वर किसको अभिशाप हुआ
यह खींच रहा है कौन डोर
हैं कहाँ डोर का ओर छोर.
फिर पूछे यह कण कण बोलो
हम शोक करें या करें हर्ष
रोजाना तुम पूरे करते
इस मंज़िल पथ के कई वर्ष
भाई पहले तो टिप्पणी करते हुए डर लग रहा है, क्योंकि कुछ समय से इधर चिट्ठाजगत में लोग वैचारिक स्तर पर बहुत असहनशील हो गए हैं। थोड़ा सा उनसे असहमत हुए नहीं कि लड़ पड़ते हैं। आपके स्वभाव को जानते हुए ही टिप्पणी कर रहा हूँ।
"परमात्मा ने जब इस प्रकृति को रचा तो मानव को कोरे कागज की तरह ' जगत ' थमा दिया"
परमात्मा ने तो प्रकृति को रचते वक्त इन्सान को जगत कोरे कागज की ही तरह थमाया था। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ वो इन्सान ने किया। जो भी दुख दारिद्र्य इस जगत में है वो इंसान के कर्मों का फल है। ईश्चर अपनी तरफ से किसी से अन्याय नहीं करता। उसका काम तो केवल जग को चलाना है। सुख दुख इंसान के अपनी कमाई के हैं। अक्सर हम आप सुनते हैं कि फलाना अपराधी जिस पर हत्या, बलात्कार आदि का आरोप था बच निकला। लेकिन वह इस अदालत से तो बच निकला लेकिन जो ईश्वरीय अदालत से नहीं बच सकता। आखिर एक व्यक्ति बुराइयों का जीवन जी रहा है और दूसरा धर्म का न्याय का तो दोनों का अगला जन्म एक समान होने से रहा।
यही इस जगत में सुख दुख का कारण है। मेरे विचार आपको पुराने लगें लेकिन ये सत्य हैं।
great topic to hv some discussion,what i hv experienced in these days that modernisation n comsummerism has made people bankrupt of pure n original thinking!!
i must appreciate the comments already done by rakesh n sirishji..
but wat i felt that both hv seen it in the way as it is the question of faith..which it is not..
it's a matter of philosophical enquiry..not to b discarded through simple emotional force..
anyways my question is to u bhaiya-if there is no paap or evil but rather it's a paramsubh as u said thn why at all it is asubh?why some without of their fault is subject to disease,trauma,earthquake,famine,flood, draught etc.n why people with expressed ills r seen enjoying the fruits..why majority suffers?n happiness is concentrated in hand of few?on wat grounds we conclude that this is write n this is wrong?
i know that u hv better understnding on these issues..n if one applies all the arguments to prove the existence of god thn it is impossible to prove it.as Kant says it's a matter of faith n no logic can destroy the force of believe but my question to u is -do u really believe that there is no asubh n if yes thn i need more clearity..
मै आप कि विचारो से पूर्णतया सहमत हू.
जिसने हम को सब कुछ दिया उससे अनिष्ट की अपेक्षा करना मूर्खता से कम नही होगा.
दिव्य.. बहुत ही उल्झा हुआ, संवेदनशील विषय है.. सबके अपने अपने मत होंगे.. मुझे पता नहीं इतनी समझ है की नहीं की कुछ कहूं.. फ़िर जो मैं जो मानती हूं वो कहती हूं..मेरा ये अटल विश्वास है कि ईश्वर जो करता है अच्छे के लिये करता है और जो किया है वो भी अच्छे के लिये है और जो होगा वो भी अच्छे के लिये.. इसी लिये ये तो सही की उसके हर रचना में हर कार्य में कुछ ऐसा है जो रहस्यमय है और उसका परिणाम अंततः अच्छा ही होगा। पर क्या ये कहना सही है की उसके पहले इस संसार में जो भी पीङा सही जा रही है, ये हत्यायें, ब्लातकार,ये शोषण, अत्याचार ये सब पाप नहीं , अशुभ नहीं.. कैसे ? ये कैसा उर्ध्वमुखी विकास है पॄथ्वी का जिस्में ऐसी विनाशलीलाएं हैं .. ये कैसा तरीका मानव कॊ उसकी गलतियों का एह्सास कराने का.. और है तो सबके लिये समान क्यूं नहीं ( यहां मैं अदिति से सहमत हूं).. जवाब चाहिये रोशनी के साथ ये अंध्कार क्या है?
राकेश जी,
धन्यवाद आपकी उक्तियों के लिए…
रहस्य होते ही है खोजने के लिए और
यह खोजी मन है किस कारण्…
मेरा आपसे यह प्रश्न है कि---
क्या जो आपकी नजरों से ओझल हो उसका अस्तित्व
नहीं है…जो टापू आपने देखे नहीं वह इस जगत में है ही नहीं…अगर आप अपनी आँखें मुंद ले तो जगत
की समस्त वस्तु मिट जाती हैं…???
मोहिन्दर जी,
धन्यवाद आपकी सहमती ही परम शुभ को स्वीकार
करती है…
श्रीश भाई,
धन्यवाद…आपके यहाँ आने का…सुंदर शब्द कहे जो आपने कहा है वही दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रमाणीत करने का प्रयास किया है…
भाई साहब,
क्या कहा जाए आप भी दर्शन को अच्छी तरह समझते है…पर मैं यही कहना चाहता हूँ…कि प्रकृति पूरी तरह खिलने की ओर अग्रसर है और इस दौरान
वह कई बदलाब करती है…और वह बदलाब मानव को
रहस्यों के करीब लाती है जिसे जान कर वह और
नये आविष्कार की ओर उन्मुख करता है…चाहे वह भुकंप हो या बाढ़ कुछ लोग तो इससे प्रभावित होते हैं पर लाखों का भविष्य इसके कारण बनता है,
इसे जरा वृहत रुप में देखना चाहिए…।
Manya,
बाकी का जबाव उपर दे दिया है…
हाँ अंधकार कुछ नहीं है…मात्र भ्रम है लेकिन तुम्हारे
लिए भी यह कहना चाहुँगा कि अंधकार के गर्व में ही रोशनी का वृक्ष छुपा है…मात्र नजरिया बदला होना
चाहिए!!
रही बात बलात्कार आदि की बात तो वह मानवीय
अज्ञान का परिणाम है…एक प्रज्ञावान मानव ऐसा कभी नहीं करता जबकि भावनाओं का स्तर लगभग समान ही होता है>>
धन्यवाद!!
यह पाप है क्या? पुण्य क्या है ?.यह सवाल शायद मानव के मन में निरंतर चलता रहेगा ....मुझे इस पर आपने विचार बहुत सही लगे ...
http://geetkalash.blogspot.com/2007/02/blog-post_25.html
Now it is your turn
रात के बिना दिन का, दुःख के बिना सुख का, अशुभ के बिना शुभ का, माया के बिना ईश्वर का कोई महत्व ही नहीं होता। बिजली के दो तार होते हैं, अकेला पोजिटिव बल्व को नहीं जला पाता। नेगेटिव या न्यूट्रॉल अर्थिंग का संयोग जरूरी है। बिना अशुभ के भी संसार नहीं चल सकता। शक्ति के बिना शिव भी शव के समान है। ऊर्जा रहस्य देखें। जरूरत है इस ज्ञान की कि नकारात्मक को सकारात्मक में कैसे बदला जाए, अशुभ को शुभ में कैसे बदला जाए?
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