"दिनकर"… एक बलंद आवाज ।
"बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?"
राष्ट्रकवि 'दिनकर' विरचित ये पंक्तियाँ आम मानव में
भी विशिष्टता का बोध कराने सकने में सक्षम है… विगत
कुछ दिनों पहले ही राष्ट्रकवि 'दिनकर' जन्मशताब्दी
समारोह में विमोचित पुस्तक "समर शेष है" में मेरी जिस कविता को स्थान
मिला वही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ… मेरी इस कविता के संदर्भ में
"मुरली मनोहर जोशी" ने भी आयोजकों से पूछा कि यह कविता किसकी लिखी
हुई है… जिससे निश्चय ही, आत्म-गौरव सा प्रतीत हुआ…।
"कहीं दूर नक्षत्रों से वह चेहरा
संकेत अनेकों प्रेषित करता है
अपने देदीप्यमान संस्कारों के
करवटे बदला करता है…
समझें जो अभिव्यक्ति उसकी
आधार विनय का वह देता है…
व्यक्तित्व था वह क्षितिज सकल
अप्रतिम ज्ञान की दीर्घ लकीर
वैशिष्ट्य ओजमय काव्य दृष्टि से
भारत का जिसने सुप्रभात देखा
सिमरिया गाँव से टाँग वह झोला
पन्नों में कुछ सांसें छोड़ा…
बीज क्रांति का लिए हृदय में
दिनकर बन वीरों का आह्वान किया
हिंदी का गौरव मसाल जला
भावी जगत का उद्घोष किया
उत्साह विद्यार्थियों का कलमबद्ध कर
राष्ट्राभिमान भवितव्य की ओर मुखरीत किया…
उर्वशी की आत्म-सौंदर्य से संस्कृति
के कई गंभीर अध्याय लिखे…
कुरुक्षेत्र में बिखरे ज्ञान महिमा को
चुनकर बनाया आध्यात्म महल
चिंतन जो बन गये अक्षर…शोध
संस्कृति में व्याप्त होकर उद्देश्य
लिए राष्ट्र पीढ़ी का उत्थान…
गुंज रही आज-भी काव्य शैली उनकी
चंचल किशोरों के तन-मन में
हुंकार करता हुआ नवयुवक अग्रसर है
अपने दिव्य क्रांति के पथ पर
जीवन लक्ष्य साध्य हुआ था
शब्द खिला जब पंखुड़ियाँ बनकर
गहन आदर्श शांत ज्वाला का
संधान किया कर्ण बनकर...
रश्मिरथी है वह मनोविज्ञान
कविवर का अंतर्दृष्टिविस्तार
युवकों के भीतर नित्य होते महाभारत
कुंठीत उमंग अज्ञान भूमि में
चैतन्य का वह महा-अवसान
रुंधा हुआ कल आच्छादित भविष्य
रोज ही करते एक विषपान…
खोला द्वार कर्ण के द्वारा
विचलित मन को शांत किया
जख्मों से फूटते फव्वारे…लेप स्नेह का
लगाकर उपासना से मानवता में मुस्कान दिया…
पीढ़ी-दर-पीढ़ी जब कभी सुनेगी उनकी
रचनाओं के हर्ष गीत
प्रेरणा पंकिल शब्दों में ऊर्जा की
अभिव्यक्ति उधेल उदासी शिखर पर
कर्मठ स्वरुप निहित वीरता का सूत्रधार करेगी…
राष्ट्रकवि वह नूतन दीपक
भारत का सच्चा महानायक
सागर जैसी गर्जना थी उनमें
विद्यार्थियों के लिए नया जागरण
सत्य… कोलाहल बनकर उफनता था
साहस का समर बांधे हुए…
आवाज भविष्य की मौन प्रेम का
गौरव और प्रतीक शांति का
अवर्णनीय सक्षम उद्यमी कदम बढ़ाया
तीसरे विश्व… नई राह की ओर...
उद्घोषक थे क्रांति के वह शाश्वत ज्ञान की पराकाष्ठा भी
समग्रता के प्रतिबिंब थे वह आत्म-सिक्त आगाज भी
याद करें उनकी कार्यशैली और गहराई टटोलें आत्मन की
लेकर चले कलम उनकी ही जोड़े कड़ी अभिनव जीवन की।"
15 comments:
बहुत बढ़िया ! दिनकर जी को जब हम पढ़्ते थे तो कई बार वीर रस से भर जाते थे..
अच्छा लगा पढ़कर !
बहुत बढि़यॉं,
मीनाक्षी जी से सहमत हूँ, दिनकर की ओज पूर्ण कविता, उत्साह भर देती है।
bahut khuub....
thank you for uploading the poem
वाकई, बेजोड़ और अद्भुत.
आनन्द आ गया. बहुत बहुत बधाई.
बहुत सुंदर कविता और सारगर्भीत,नि:संदेह प्रसन्श्नीय है......!
दिव्याभ जी ..यह कविता मुझे बहुत पसंद आई .और दिनकर जी के बारे में तो कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाना है
आपने इसको यहाँ दिया पढ़ के बहुत अच्छा लगा ..शुक्रिया !!
आप सही कह रहे हैं दिनकर जी को पढ़ना अपने आप में सनसनी और उत्साह भरना है!
दीव्याभ,
ओजस्वी दीनकर जी की पावन स्मृति को शत शत प्रणाम !
आपकी कविताँजलि ,
बिलकुल उन्हीँ की प्रतिभा को समर्पित हो ऐसी
भव्य है --
शुभ कामना सहित,
स स्नेह, लावण्या
आर्यन जी
इतने दिनों बाद दिनकर को पढ़ना अच्छा लगा। आप मेरे ब्लोग पर आ कर मेरी हौसला अफ़जाई कर गये मुझे अच्छा लगा, आप भी बम्बई से है जान कर खुशी हुई, आप का ई-मेल पता आप के ब्लोग पर ढूढने पर भी नही मिला इस लिए मजबूर हो कर यहीं धन्यवाद कर रही हूँ, क्षमा चाह्ती हूँ, कृप्या अपना ई-मेल पता दें ताकि अगली बार से ठीक से शुक्रिया अदा कर सकूं।
good to see ur poem here...it's been the talk of the town...brilliant corroboration of his works...simply awestrucking..
dhanya hain "MURLI MANOHAR JOSHI" jinhone aapki kavita ke baare me poocha,unki vidwatta ka to main kayal ho gaya...
par agar dinkar ji ne agar ye kavita jiski 10-15 tangen hain aur sari ki sari tooti hain to sabse pahle "MURLI MANOHAR JOSHI" ko aade hathon lete......
""दिनकर"… एक बलंद आवाज ।"
bas yahi sahi laga,baaki "MURLI MANOHAR JOSHI" ji ne to hadd kar di hai,agar dinkar ji hote to sabse pahle unhi ko aade hathon lete..
kavita ke paragraphs ka ek doosre se kya sambandh hona chahiye ye koi seekhne ki baat nahi,ye to naisargik pratibha hoti hai..
kavita se jo bhav pradarshit hone chahiye unka abhav hai.
waise apko aatm-mugdh karne ke liye ye blogger apni tippaniyan barabar de rahe hain....
महाशय संगीतकार…
बड़ा ही गहन अध्ययन किया है आपने मेरी रचना का…पढ़कर सच कहूं तो मजा आ गया…।
आपके संदर्भ में दो-चार पंक्तियां ही कहना चाहूंगा---
यह प्रत्यय है… आविष्कार का,
कुछ खाली भी… पूर्ण भी,
हद यहाँ यही है बंधुवर कि
आलोचना भी कुंठा में जलती
अंधी राहों पर बैठी है…।
रही बात मुरली जी की तो आप क्या सोंचते हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला वो आपकी तारीफ के साये में नहीं जीते हैं… दिनकर जी तो ले ही रहे हैं आडे हाथों हम सबको… नहीं क्या???
मगर क्या यह भी सोचा है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी आपके बारे में क्या सोंच रहे हैं…।
भाई साहब बहुत बंधुओं को इन सालों में देखा है कि बड़ी-2 आलोचना करते हैं और चंद लेख के बाद ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सर से सींग…। पहले लगातार लिखों और देखों टिकना किसे कहते हैं। मुझे नहीं लगता कि ब्लागर भाइयों की टिप्पणी से मैं आत्म-मुग्ध होता हूँ… साहब मेरा यह मात्र एक शगल है और भी बहुत सारे काम हैं मेरे…इतनी छोटी सोंच नहीं रखता।
आपने दिनकर काफी सारगर्भित जानकारी दी है। बधाई स्वीकारें। आशा है आगे भी अन्य साहित्यकारों पर इसी प्रकार ज्ञानवर्द्धन जानकारी पढने को मिलती रहेगी।
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