1857 का "Revolt"


1857 का विद्रोह” अपने 150 साल पूरा
कर चुका है, मुंबईचौपाल
पर बहस के लिए आमंत्रण किया गया था
बात यहीं से शुरु हुई…मैंने देखा वर्तमान
समय में इतिहास के कुछ पन्ने स्पष्ट हो
चुके हैं तब-भी इतनी अतिश्योक्तिपूर्ण परिचर्चा
हो रही है…अब चुकीं इस क्षेत्र से अपन का
लंबा नाता रहा है तो पूर्व का “मैं” जागा और
जैसे ही लिखने लगा…ये क्या मेरे हाथ कंपकंपा
रहे थे जैसे जड़ता की स्थिति में आ गये हो
Keypad पर कुछ भी टाईप नहीं हो रहा था,
मन भयाक्रांत था सहमा हुआ…अब लिखना था
1857 का विद्रोह और कांप रहा था मैं क्यों?
तो लो जी हम भी मन के अंधकार को प्रकाशित
कर लें नहीं तो मैं काला न रह जाऊँ…।एक दिन
“RSS तालिबान” लिखा लेख पर जा पहुंचा…
मैं इसपर की गई टिप्पणियों को पढ़ पूरी तरह
हतोत्साहित हो गया…वाह मित्रों!!! क्या हालात हैं
तुम्हारे…जब रचना जी ने अपने लेख में ग्रुप की
बातें की तो सारे झंडा लेकर विरोध करने जा
पहुंचें और वहाँ टिप्पणियों की संख्या मासा-अल्लाह!!J
सब सफाई ही देने में लगे थे…लेकिन ये क्या
संप्रदायवाद की दुर्गंध…क्या प्रतिक्रिया
दी है भाइयों भाई वाह!!!!!!
Shrish Bhai
मेरे एक लेख की प्रतिक्रिया में सच कहा था कि
दिव्याभ भाई आज –कल चिट्ठाकार बहुत असहनशील
हो गये हैं…यह अब सच लगने लगा है, कोई
अनाम बनकर टिप्पणी कर रहा है और जब
देखता है कि अभी तो कुछ कहा ही नहीं तो
दोबारा वही शक्स पुन: पहुँच जाता है…हमारे बीच
बौद्धिकता का चोला डाले कुछ मित्र-गण भी
कुछ-से-कुछ लिख कर आ रहे हैं…कई बार इन लोगों
ने “जलते भारत” पर सवाल उठाए पर दिख गया कि
लिखना और वास्तविकता दोनों अलग हैं।


सदाशिव स्वामी ने कहा था कि
जो करने की इच्छा हो वह मत करो,
तब तुम जो चाहोगे वह कर सकोगे।


इस विरोधाभासी कथन का यही अर्थ है कि अपने
“अहं” को मार डालो तभी उच्चता पाओगे।
अब कहीं मैं न इस गाली-गलौज में आ फंसूँ
तो भयभीत हो गया…था।]
तो चर्चा शुरू करते हैं---
1857 का विद्रोह“क्रांति” था। सबसे पहले
“क्रांति” को समझना आवश्यक है…
“क्रांति” वह होता
है जिसका कोई परिणामी उद्देश्य हो एक निश्चित समीकरण
हो एक गणितीय नियम हो…जो सत्ता के पूर्ण परिवर्तन
व नये शासन की शुरुआत करता हो…बदलाव की
उसी पुरातन पृष्ठभूमि से स्वयं को अलग कर
निर्माण की नई आकांक्षा को पूरा करता हो,
अर्थात सारे स्तरों पर तत्क्षण परिवर्तन।

और इस आधार पर यह अब प्रमाणित हो चुका
है कि 1857 एक विद्रोह था…।


1857 का विद्रोह एक महान जागरण था, जो गहन
अब्रिटिश” भावनाओं की अभिव्यक्ति स्वरूप उत्तर तथा
मध्य भारत में फूट पड़ा, यद्यपि भारतीय नागरीकों
के असंतोष का सीधा प्रभाव सैनिकों पर पड़ा,
जिसके कारणत: इसका आरंभ सैनिक विद्रोह के
रुप में हुआ तथापि इसका नेतृत्व असैनिकों के हाथों
में और शीघ्र ही इसने अधिकांश जनता एवं किसान
वर्ग को भी सम्मिलित कर लिया। विद्रोह की व्यापकता
इसी-से ज्ञात होती है कि उस समय के कतिपय
पर्यवेक्षकों ने इसे “राष्ट्रीय विद्रोह” की संज्ञा दी।
ईस्ट इंडिया कंपनी की साम्राज्यवादी अराजकतापूर्ण
शोषण की प्रवृति तथा धन की लोलुपता के संचित
प्रभाव से भारत में सभी वर्गों यथा रियासतों के
शासक, सैनिकों, जमींदारों, कृषकों, व्यापारियों तथा
धर्म संस्थापक आक्रांत थे, ब्रिटिश नीतियों के कारण
हिंदू-मुसलमान के धर्म-मान-जीवन सम्पत्ति सभी
को भय उत्पन्न हो गया था। यद्यपि भारतीयों का
रोष समय-समय पर विभिन्न भागों में विद्रोह के रुप
में प्रकट होता रहा; इसी आधार की उपज जो सामान्यत:
भिन्न व व्यापक जन-आंदोलन “1857 के विद्रोह
के रुप में हुआ।
जहाँ तक 1857 के विद्रोह की “राष्ट्रीय प्रकृति” का प्रश्न है
इस संबंध में इतिहासकारों में मैंतक्य नहीं है।
इसके पक्ष में “बेंजामिन डिजरेली” जो इंगलैंड में
समकालीन रूढ़िवादी दल के एक प्रमुख नेता थे तथा
अशोक मेहता” आदि विद्वानों ने इसे “राष्ट्रीय विद्रोह
माना है। डिजरेली के अनुसार
यह सुनियोजित एवं
प्रयत्नों का परिणाम था, जो अवसर की प्रतीक्षा में था।

जहाँ तक राष्ट्रीय विद्रोह का प्रश्न है, किसी विद्रोह
को राष्ट्रीय विद्रोह तब कहा जा सकता है जब;
    • वह संपूर्ण राष्ट्र में एक समान प्रभाव छोड़े
    • उस विद्रोह का कोई एक नेतृत्वकर्ता हो
    • वह राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर लड़ा जा
      रहा हो
    • विद्रोह को सर्वसाधारण एवं सभी वर्गों का
      समर्थन प्राप्त हो।


1857 के विद्रोह में बंगाली, पंजाबी, महाराष्ट्रीय तथा
मद्रासीयों नें यह कभी अनुभव नहीं किया था कि वे
एक राष्ट्र के सदस्य हैं। विद्रोह का नेता कोई राष्ट्रीय
नेता नहीं था। “बहादुरशाह” कोई राष्ट्रीय सम्राट नहीं
था, उसे तो मात्र सैनिकों ने नेता घोषित कर दिया,
नाना साहब का दूत लंदन से पेंशन प्राप्त नहीं कर
सका तब इन्होंने विद्रोह का झंडा उठाया। झांसी का
विद्रोह उत्तराधिकार और विलय के प्रश्नों को लेकर था,
इसमें कोई संशय नहीं कि “रानी झांसी” वीर-गति को
प्राप्त हुईं परंतु इससे स्पष्ट नहीं की वह राष्ट्रीय हित में
लड़ रही थीं। अवध का नवाब एक बेकार एवं व्यभिचारी
व्यक्ति था, जो राष्ट्रीय नेता नहीं हो सकता था यह तो
अवध के तालुकदारों ने सामंतशाही अधिकारों था अपने
राजा के लिए युद्ध किया ना कि राष्ट्रीय-हित में। इसमें
जनता के सभी वर्गों ने हिस्सा नहीं लिया आधुनिक
शिक्षा प्राप्त वर्ग, मध्यम एवं उच्चवर्ग तथा सम्पत्तिशाली
वर्ग इस आंदोलन से अलग ही रहा। विद्रोह का प्रसार
भी सीमित था, उत्तर व मध्य भारत के अलावा अन्य भागों
में इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
डा सेन का कथन है:
19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत केवल
एक भौगोलिक कथन ही था तथा उस समय भारतीय
राष्ट्रीयता भ्रूणावस्था में थी”।
सही जान
पड़ता है।

श्री ताराचंद ने ज्यादा स्पष्ट किया है;
1857 का विद्रोह एक कमजोर व्यवस्था
का अपनी खोई हुई मर्यादा को पाने का अंतिम प्रयास
था।


अत: इस रुप में “1857 के विद्रोह" को राष्ट्रीय विद्रोह की
संज्ञा नहीं दी जा सकती। “क्रांति” तो बिल्कुल नहीं!!


जहाँ तक 1857 के विद्रोह का प्रश्न है, इसके वास्तविक
स्वरूप के संबंध में इतिहासकारों का विभिन्न मत है…
समकालीन अंग्रेज लेखकों ने जिसमें जॉन विलियम,
मालेसन, ट्रेविलियन, लारेन्स ने इसे सिर्फ सैनिकों का
विद्रोह या "म्यूटिनी" कहा। इन लोगों ने असैनिकों के
योगदान की या तो उपेक्षा की या इसे कुछ स्वार्थी
लोगों की स्वार्थपरायणता का परिणाम मानकर महत्वहीन
समझा। कुछ भारतीय इतिहासकार भी इसे सैनिक विद्रोह
मानते हैं—मुंशी ज़ीवन लाल, दुर्गादास, सैयद अहमद ख़ां
आदि। दूसरी ओर कुछ लेखकों ने इसे;
अंग्रेजों के विरूद्ध मुसलमानों का षड़यंत्र,
असंतुष्ट सामंतों का विद्रोह कहा।

“होम्ज” की उक्ति सबसे प्रसिद्ध रही इसने इसे—
“बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध” कहा।
स्पष्ट है कि इस बारे में अनेकों विचार प्रस्तुत किये गये
हैं। किसी निष्पक्ष निष्कर्ष तक पहुंचने हेतु इन विचारों
का परीक्षण आवश्यक है---


यह सही है कि विद्रोह का आरंभ सैनिक छावनी
से हुआ, कारतूस के मुद्दे ने अवसर को मौका दिया
और सैनिक हिंसक विद्रोह कर दिल्ली पहुँचे जहाँ वहाँ
के सिपाहियों ने उनका साथ दिया लेकिन हमें यह ध्यान
रखना चाहिए की भारतीय सैनिकों का एक बड़ा भाग
अंग्रेजों के साथ में था जिसने इस विद्रोह को कुचलने
में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। दूसरे इस विद्रोह
में मात्र सैनिकों या सामंतों ने भाग नहीं लिया था वरन
जन-साधारण ने भी अपना रोल निभाया था। इसकारण यह
मात्र सैनिक विद्रोह नहीं था…।
जेम्स आउट्रम और डब्ल्यू टेलन ने इसे मुस्लिम षड़यंत्र माना,
जिसमें हिंदू शिकायतों का लाभ उठाया गया किंतु यह
व्याख्या भी अपर्याप्त है क्योंकि वर्तमान में यह स्पष्ट
हो गया है इस विद्रोह का कोई संगठन नहीं था।
इसी प्रकार इसे ईसाइयों के विरुद्ध भी विद्रोह नहीं माना जा
सकता क्योंकि एक तो ईसाइयों ने अपने धर्म प्रचार में
कोई पर्याप्त सफलता नहीं पाई थी दूसरे उनके द्वारा अंग्रेजी
शिक्षा के प्रचार को हिंदू-मुस्लीम दोनों समाजों के शिक्षितों
ने सहर्ष स्वीकार किया था।
आर सी मजुमदार का मानना है कि तथाकथित “प्रथम राष्ट्रीय
स्वतंत्रता संग्राम” ( जिसे "सावरकर" ने माना है) न तो प्रथम,
न राष्ट्रीय और ना ही स्वतंत्रता संग्राम थामार्क्सवादियों के
अनुसार यह सैनिक व कृषकों का प्रजातांत्रिक गठजोड़ था जो
विदेशी तथा सामंती दासता से मुक्त होना चाहता था।


उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न विचारकों
के मत में आंशिक सत्यता ही है, कोई भी मत पूर्णतया
सत्यता की कसौटी पर खड़ा नहीं उतरता…यह एक
जन आंदोलन अर्थात “पापुलर रिवोल्ट” था जो सैनिकों
के मूल से शुरु हुआ एवं असंतुष्ट सामंतों ने इसका नेतृत्व
किया…। यह एक सरकार कि नीतियों के विरुद्ध जन विद्रोह
था जिसमें दोनों ने मिलकर हिस्सा लिया।


इस गंभीर विश्लेषण से पता चलता है, हाँलाकि “1857 का
विद्रोह” असफल रहा मगर यह व्यर्थ नहीं गया, यह हमारे
इतिहास का एक शानदार पड़ाव था; यह पुरातन भारतीय
नेतृत्व को बचाने का एक हताशा-पूर्ण प्रयास जरूर था परंतु
यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए भारतीयों का
प्रथम महान संघर्ष था। इसने आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन
को नींव प्रदान किया तथा विदेशी शक्ति को समाप्त करने
के लिए जिस वीरता व बलिदान की भावना का परिचय
दिया वह आने वाले भारतीय जन-नायकों की प्रेरणा का
अक्षुण्ण स्रोत बना रहा…।
मैं इस लेख के माध्यम से उन समस्त वीरों को
सादर प्रणाम करता हूँ…।
भाइयों ;
“महात्मा बुद्ध” से एक प्रश्न पूछा गया कि
“मनुष्य को सबसे समान रुप से प्रेम क्यों करना चाहिए?
“बुद्ध” का उत्तर बड़ा अनूठा था—“क्योंकि प्रत्येक मनुष्य
के असंख्य और विविध जन्मों में कभी-न-कभी अन्य प्रत्येक
जीव किसी-न-किसी रूप में उसे प्रिय रहा है।

यह हमें याद दिलाता है कि हमें व्यवहार में कैसा
परिवर्तन करना चाहिए…मुझे आप अपना कोप-भाजन
न बनाये इस कारण यह लिखना पड़ा JJ

8 comments:

Mohinder56 said...

इतिहास के पन्नों से आपने बहुत अच्छा लेख निकाला..हमारा आपसी अलगाव ही हमारी बरसों की दासता का कारण रहा है.. कभी धर्म, कभी जाति और कभी वोटों की राजनीति हमें फिर से उसी दलदल में धकेलने को उद्यत रह्ती हैं... उत्तम रचना व दर्शन.

Anonymous said...

पहले तो आपका शुक्रिया .. जो इतना अच्छा विवरण दिया.. विचार तो आपके सदैव ही अलग होते हैं.. सही कहते हो हमारे यहां लोगों को मौक मिलना चाहिये झंडे गाङने का...और विषय अगर सांप्रदायिक हो तो हम भारतवासी सारे काम धाम छोङकर उस पर बहस करना अपना परम , पुनीत कर्त्तव्य समझते हैं.. समझ आये या नहीं,,, भले ही इतिहास वर्त्त्मान का पता नहीं .. पर विरोध करना है.. खैर.. मुझे ये जान्कारी बहुत अच्छी लगी.. इतिहास मेरा प्रिय विषय रहा है.. पर करीब ११ साल हो गये छॊङे हुये..इसलिये बहुत अच्छा लगा पढना..
यह एक
जन आंदोलन अर्थात “पापुलर रिवोल्ट” था जो सैनिकों
के मूल से शुरु हुआ एवं असंतुष्ट सामंतों ने इसका नेतृत्व
किया…। यह एक सरकार कि नीतियों के विरुद्ध जन विद्रोह
था जिसमें दोनों ने मिलकर हिस्सा लिया।.. मैं इन विचारों से पूरी तरह सहमत हूं .. ज्यादा जानकारी ना हो जिस बारे में उस पर ज्यादा बोलना अच्छा नहीं.. इसलिये बस इतना ही कहूंगी की लोग आपके इस विश्लेष्ण का तात्त्पर्य समझें.. आपका प्रयास सफ़ल हो.. यही शुभकामना करती हूं.. N GUD LUCK TOO .. for 'कोप-भाजन'..

और हां भगवान बुद्ध के वचनों के लिये धन्य्वाद..

Tarun said...

१८५७ एक विद्रोह हो सकता है लेकिन लोगों में इसी के बाद क्रांति फैली थी बाकि ऊपर के कमेंट के इतिहास का कुछ नही मालूम।
राष्ट्रीय विद्रोह कैसे हो सकता है जब एक राष्ट्र जैसा कुछ था ही नही, सब राजे लोग अपना अलग अलग राज चलाते थे।

लेकिन इतिहासे के पन्नों को खगाल के अच्छी प्रस्तुति की है, बधाई

A K said...

1857 ka vidroh ek asafal koshish thi par isne ek chingari paidaa ki jo 90 saal baad ek suraj ban chukaa tha ..Kya hota yadi ye kranti safal ho jati ,Bharat kabhi bhi janatantra ka swaroop nahin le pata.

Divine India said...

मोहिन्दर जी,
आपके यहाँ आने का बहुत शुक्रिया और जो इतने प्यार से इस लम्बे लेख को पढ़ा…।

मान्या,
thnx for ur gr8 words...

तरुन,
मैने कोई यह उद्घोषण नहीं किया कि यह राष्ट्रिय विद्रोह था या नहीं…। आने का शुक्रिया…

Divine India said...

अभिजीत जी,
अगर गाँधी,सुभाष…भगत नहीं होते तो स्वतंत्रता नहीं मिलती यह अवधारणा ही गलत है…भारत की स्वतंत्रता अपरिहार्य थी क्योंकि स्वतंत्रता अपने पुत्रों को समय आने पर जन्म दे देती है… अगर यह विद्रोह सफल भी होता तो भारत का एक होना भी अपरिहार्य था…संथाल विद्रोह,संन्यासी विद्रोह इसी का पूर्व सूचक थीं…
लेकिन आपके विचार भी उत्तम हैं…आने का शुक्रिया!!

Anonymous said...

history is wat history takes!true words...to describe ur balance view on our 1857 revolt..no columns of biasness wether it's indian stand or western...honest channelisation of complex thought..this is wat is required to understand the exact nature of modernisation..covering all..impressive work..
thx to write such an art...

ALOK SACHAN said...

it's a good subject for debate but without having proper knowledge one shouldn't comment on that. this revolution can be considered as the fist step towards 1947. however, it was a total failure but the positive point associated with the 1857 revolution is that it united the nation and it resulted into the end of the tenure of the company. some favourable amendments were made in the policies. congress took birth.