जीवन की तरंग या किसी सांझ की
शांत... कहानी का उल्लेख, सोंच है वो
मेरी या मेरे अनुमानों की मूर्त गीता...
या फिर मेरी कल्पनाओं के साथ मेरा
अपना जागृत प्रयोग......
सुने...! क्या कुछ कहती हैं ये अंतरंग वीणा...
शिखा से स्वरुप में आनंद निखार
प्रतिवेदनाओं का अदभुत निर्माण
कुछ दिव्य-दिव्य सा भंवर पड़ा है
गहराते हुए अंधकार में...
शिखा से स्वरुप में आनंद निखार
प्रतिवेदनाओं का अदभुत निर्माण
कुछ दिव्य-दिव्य सा भंवर पड़ा है
गहराते हुए अंधकार में...
मात्र उसी के अभिज्ञान में ठहर कर,
जब-से, अबतक सोया हुआ हूँ
जागृत मनु की वृत्तियों में...
बस इंतजार है उस लौ की जिसमें
करवटों पर करवटें हों और निशा के
शांत लहर में स्नेहा-मंथन की बात चले...
जब-से, अबतक सोया हुआ हूँ
जागृत मनु की वृत्तियों में...
बस इंतजार है उस लौ की जिसमें
करवटों पर करवटें हों और निशा के
शांत लहर में स्नेहा-मंथन की बात चले...
कुछ शाम की तन्हाईयों की
कुछ ज्योत्सना के प्रच्छद-पट पर
भावयुक्त संवेदना का अविराम आभास पले,
रुठ जाओगी आज अगर तुम इस
थमे हुए-से अनजाने मोड़ पर
हर पल शायद घुल जाएगा याद
तुम्हें ही कर-कर...
कुछ ज्योत्सना के प्रच्छद-पट पर
भावयुक्त संवेदना का अविराम आभास पले,
रुठ जाओगी आज अगर तुम इस
थमे हुए-से अनजाने मोड़ पर
हर पल शायद घुल जाएगा याद
तुम्हें ही कर-कर...
मैं प्रातः था इस जीवन में जब
त्रियमा ने अंधकार रचा...पर...कैसा था...
वो रुप सुहाना जिसके विभिन्न रश्मियों ने
अपना चैतन्य विस्तार किया,
त्रियमा ने अंधकार रचा...पर...कैसा था...
वो रुप सुहाना जिसके विभिन्न रश्मियों ने
अपना चैतन्य विस्तार किया,
कैसे भूल जाऊँ मैं...
उस पल की अनंत उत्सुक्ताओं को...
उस पल की अनंत गति, धड़कते हृदय
में उठते गहरे श्वास की ज्वार को
कैसे...? कैसे...? मैं छोड़ जाऊँ तुझे...
उस पल की अनंत उत्सुक्ताओं को...
उस पल की अनंत गति, धड़कते हृदय
में उठते गहरे श्वास की ज्वार को
कैसे...? कैसे...? मैं छोड़ जाऊँ तुझे...
चाहे कल्पना हो या हक़ीक़त, झाँकना तो
सभी को पड़ता ही है, पीछे जाकर खुद को
तलाशना उन रश्मों को उन वादों को
निभाना तो पड़ता ही है, अनचाहे हृदय से
या कुछ देर से...एक बार ही सही,
पास तो जाना पड़ता ही है.
सभी को पड़ता ही है, पीछे जाकर खुद को
तलाशना उन रश्मों को उन वादों को
निभाना तो पड़ता ही है, अनचाहे हृदय से
या कुछ देर से...एक बार ही सही,
पास तो जाना पड़ता ही है.
मेरे प्राणों की साथी मेरे संभावनाओं की संगनी......
वो आकृति ही तो इस मन की ओट से
झाँक-झाँक कर कह रही है---
वो आकृति ही तो इस मन की ओट से
झाँक-झाँक कर कह रही है---
"पथ हजारों थे जिसपर मैं ठोकर खाकर पड़ा हुआ था,
चलना सीखा ही तेरे आने की गुँज सुनकर,
जो तू चली जाएगी इसकदर...पथ- से,
क्या मैं लौट नहीं आऊँगा...उसी भंवर में..."
चलना सीखा ही तेरे आने की गुँज सुनकर,
जो तू चली जाएगी इसकदर...पथ- से,
क्या मैं लौट नहीं आऊँगा...उसी भंवर में..."
9 comments:
चाहे कल्पना हो या हक़ीक़त, झाँकना तो
सभी को पड़ता ही है, पीछे जाकर खुद को
तलाशना उन रश्मों को उन वादों को
निभाना तो पड़ता ही है, अनचाहे हृदय से
या कुछ देर से...एक बार ही सही,
पास तो जाना पड़ता ही है.
अदभुत ..दिव्याभ ..तुम्हारी लिखी रचना को पढ़ना मेरे लिए एक नशे जैसा हो गया है :)..बहुत ही सुंदर लिखा है ..भाव को यूँ ढालना कोई आपसे सीखे ...अपने अंदर छिपे इन विचारो से परिचय करवाने के लिए शुक्रिया ...
बन्धु
आपका यह गद्य गीत अनुपम है. आशा है कि आप अखर रहे दो- तीन शब्दों को परिवर्तित कर प्रवाह उत्तम करेंगें.
" पॄष्ठ रँगे अनगिनती, लेकिन सांसों का अनुबन्ध रह गया "
दिव्य.. प्रेम का ये बहुत ही अलौकिक रूप रचा है तुमने.. अनोखा मिलन और उस पर उसका दिव्य स्वरूप.. कहां कोई जा सकेगा तुम्हें छॊङ कर.. इन भावों को जान कोई शायद ही कोई प्रिय त्याग सके आत्म प्रेम को..
दिव्याभ जी, शब्द नहीं हैं कुछ कहने को । बहुत ही मधुर, बहुत ही सुन्दर भाव !
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
bare hi sundar bhav vyakt kiye hain is kavita me tumne
ranju,
मैं यह प्रयास करुंगा की यह नशा बना रहे…बहुत शुक्रिया जो मन की गहराइयों से देखा…।
राकेश जी,
आप यहाँ पधारे बहुत धन्यवाद्…मैं शुरु से ही पंक्तियों के मुख को मिलाने क विरोधी रहा हूँ…क्योंकि मिलाने के लिए भावनाओं को रोककर
शब्दों मे तैरना पढ़ता है…प्रवाह जैसे आये वही स्वीकार करता हूँ…।
मान्या,
तुमने इसे दिव्य रुप में देखा शुक्रिया। छोड़ने वाले
हृदय के स्वर को नहीं देखते बस किनारे से क्यारियों पर होते सरक जाते हैं।
बासूती जी,
आने और अव्यक्त में ही सारे शब्दों को अनुबंधित कर देना…बहुत खुब…धन्यवाद!!
तरून,
पुन: आपको देखा अच्छा लगा… चलिए यह कविता पसंद आई…
आपने ब्लाग की शक्ल्-ओ-शूरत में जो बदलाव किए हैं वह अच्छा लगता है..आपकी कविताओ में जो दर्शन होता है ..वह भी तो कमाल है.
दर असल मैं इतनी गहराइयों को समझ नही पाता हूं..लेकिन लगातार पढते रहने से अब कुछ समझने लगा हूं.
धन्यवाद
आपका
गिरीन्द्र
9868086126
Thnx for coming Girindra...!!
सुन्दर गीत प्रस्तुती...बहुत अच्छा लिखा है आप ने
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