चार कौए उर्फ़ चार हौए


बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले


उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएँ और गाएँ
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएँ।


कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया-भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में


ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गए।


हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बाँधकर खड़े हो गए सब विनती में


हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएँ
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएँ।


बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को


कौओं की ऐसी बन आयी पाँचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में


उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले।


आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है


उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना!

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भवानीप्रसाद मिश्र

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